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Showing posts from September, 2018

हमारे तो एक प्रभु हैं...

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  बड़े भाग मानुष तन पावा। मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिलता है,भगवान की कृपा से मिलता है।इसलिए यह शरीर भगवान के लिए है।उनको प्राप्त करने के लिए है। वास्तव में एक मेरे प्रभु श्री सीताराम जी के अलावा और किसी की सत्ता है ही नहीं।आप विचार करके देखें,ये शरीर,ये संसार मिटनेवाला है,निरंतर मिट रहा है। जब हम मां के पेट से पैदा हुए थे,उस समय इस शरीर की क्या अवस्था थी और आज जब देखते हैं तो इसकी कैसी अवस्था है। ये संसार,ये शरीर पूर्व में जैसा था आज वैसा नहीं है और आज जैसा है,भविष्य में ऐसा नहीं रहेगा।यह निरंतर बदलने वाला है,बदल रहा है।लेकिन जो कभी नहीं बदलता सदा एकरूप बना रहता है वह केवल भगवद तत्व है,परमात्म तत्व है। हमारे प्रभु सीताराम जी निरंतर रहने वाले हैं और यह संसार  छूटनेवाला है। इसलिए हमें चाहिए कि हम दृढ़ता से यह मान लें कि प्रभु हमारे हैं और हम प्रभु के हैं।जैसे छोटा सा बालक कहता है कि मां मेरी है।कोई उससे पूछे कि बता मां तेरी क्यों है।तो इसका उत्तर उसके पास नहीं है।उसके मन में कोई शंका,कोई संदेह नहीं हैं। मां उसकी है, बस।फिर चाहे आप कुछ भी कहें, उसके लिए आपकी कोई बात महत्व ...

प्रतिकूलता आगे अनुकूलता में बदल जाएगी

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एक व्यक्ति  से हमने कहा , सुनो -  राम  नाम जपा  करो , सब बढ़िया होगा l  उसने कहा महाराज , यही सोच कर तो प्रभु का नाम जप रहे थे , किन्तु हालत सुधरने की जगह और गड़बड़ा गयी , महाराज , नहीं जप रहे थे ,तो ही ठीक थे l मित्रों जब हम भगवान का नाम जप करते हैं , तो जीवन में एक बार तो प्रतिकूलता  आती ही है , किन्तु आगे चल कर वही प्रतिकूलता अनुकूलता  में बदल जाती है l आइये हम इसे  कथा के माध्यम  से समझने  का प्रयास करें l  हनुमान जी अशोक  वाटिका  में , वृक्ष के ऊपर पत्तों  में छिप कर सही समय का इंतज़ार  कर रहें हैं , ताकि वे प्रभु की दी हुई  मुद्रिका  माता जानकी  को दे सकें , उसी समय वहाँ रावण  आता है और बहुत प्रकार से माता सीता को समझाने का  प्रयत्न करता है l                      ' बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा l l                           ...

हम कहाँ से आये हैं ? हमे कहाँ जाना है ?

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आप को पाना  क्या है ? आप की चाह का विषय क्या है ? क्या आप को यह समझ में आता है l  जीव की चाह का , जीव माने हम और आप जो प्राणी  हैं , उनकी चाह का विषय है , ऐसा जीवन जहाँ मौत की छाया न पहुँच सके , मृत्यु के चपेट  से विमुक्त  होकर  सदा के लिए नित्य होकर शेष रह सकूँ  , मृतुन्जय होकर , चाह का असली विषय यही है l  मृत्यु से बचना  चाहता है , मृतुन्जय होकर जीना चाहता है l  यह सार्वभौमिक  सिद्धांत  है l  इसी को कहा गया  'असतो मा सद्ग्मय '   l ना समझी , अज्ञता , मूर्खता , जड़ता  के चपेट से मुक्त होना चाहताा है , चिद्रूप (शुद्ध चैतन्य रूप , निर्मल स्वभाववाला ) अखंड ज्ञान -स्वरुप होकर जीव शेष (बचा हुआ , जीना ) रहना चाहता है , ' तमसो मा ज्योतिर्गमय ' l जो कुछ दैहिक , दैविक ,भौतिक ताप , वेदना , कष्ट है , उससे मुक्त होना चाहता है l आनंद होकर शेष रहना चाहता है , ' मृत्योर्मा अमृतं गमय ' l अर्थात जीव का जो असली स्वरुप है , उसी को जीव पाना चाहता है l मृत्यु , जड़ता , दुःख से विनिर्मुक्त...

अनेक मार्ग क्यों ?

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मित्रों अनेक नदियां  अनेक मार्गों  से बहती  हुई , अंत में , सागर  में जाकर मिल जाती हैं , सागर तो एक ही है , किन्तु  सागर तक जाने के रास्ते भिन्न -  भिन्न हैं , उनमें   भिन्नता  भी इसलिए है ,क्यों की एक ही मार्ग  से सारी नदियां  सागर तक नहीं पहुँच सकती  l  इसी तरह उपासना का भी अद्भुत  विज्ञान है , शास्त्रों  में अनेक पूजा विधि बताई  गयी है , उसका मूल कारण ही यही है l  जैसे हम सब भोजन करते है , भोजन से सब का पेट भरता  है , उस भोजन से सब को  तृप्ति होती है , किन्तु सब का स्वाद अलग -अलग होता है , अलग -  अलग स्वाद के कारण भोजन की अलग -  अलग  सामग्रियां एवं सब्ज़ियां भी उपलब्ध हैं l तो जिसे जैसा भोजन चाहिए वो  वैसा ही भोजन पका  कर अपने पेट को भरता है l  इसी तरह उपासना भी है l  परमात्मा  साध्य हैं , और यह अनेक मार्ग साधन हैं , अपने स्वाभाव  , अपने रूचि  , अपने भाव के अनुरूप  ही साधक मार्ग का चयन  करता है , और...

प्यार ( love )

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आज हर तरफ वासना का बोल -बाला है , जहाँ देखो वहां , बच्चो से लेकर बड़े सब का हाल एक सा ही है , हर कोई केवल और केवल शरीर का भूखा है , प्यार का अर्थ आज वासना बन कर रह गया है और कुछ नहीं , अपनी वासना को आज हम प्यार का नाम दे देतें हैं l काश आज की युवा पीढ़ी प्यार को समझ पाती उसकी पवित्रता को समझ पाती , किन्तु नहीं , यदि आज की युवा पीढ़ी  प्यार के सम्बन्ध में कुछ  जानती  है ,तो वो बस इतना की प्यार अर्थात दो शरीरों  का मेल l आज प्यार को शरीर तक ही सिमीत कर दिया गया है l  मित्रों ये शरीर साधन है और प्यार साधना l प्यार की साधना के लिए इस शरीर का उपयोग  बस साधन मात्र का है और कुछ नहीं , लेकिन हमने तो शरीर को ही सब कुछ समझ लिया है l आप विचार कीजिये , जब बच्चा छोटा होता है , तो माँ उसे चलना सिखाती  है , जब बच्चा चलता है , तो माँ उलटे पैर  पीछे की ओर चलती है , इसका अर्थ यह तो नहीं की माँ को सीधा  चलना नहीं आता , माँ को तो सीधा चलना आता है , लेकिन माँ जान बुझ  कर उलटे पैर पीछे चलती है ,ताकि उसका बच्चा सीधा चलना सिख  जाये l ...

दुर्गुणों को छोडो

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हम सब केला खाते हैं  l किन्तु केले  का छिलका नहीं  खाते ,उसे निकाल कर फेंक देते हैं , इसी तरह हम सब को किसी के गुण को ग्रहण  करना हो तो दोष का छिलका फेंक देना चाहिए l अच्छा , वृष की उसी डाली  में फूल लगा है और उसी में कांटे लेकिन काँटों  को कोई नहीं तोड़ता  ,काँटों  से बच कर सब फूल को तोड़  लेते हैं l  कीचड़  में कमल  खिलता है , तो कमल के साथ कोई कीचड़ को लपेट  कर नहीं लाता , तो जब हम केले के छिलके को छोड़ सकते हैं , फूल चुनते  समय काँटों को छोड़ सकते हैं और कमल लेते समय कीचड़ को छोड़ सकते हैं l  इसी तरह संसार में गुणों  को ग्रहण करके , काँटों की तरह दुर्गुणों  को छोड़ दो , कीचड़ की तरह इन दुर्गुणों को छोड़ दो और केले के छिलके की तरह इन दुर्गुणों को छोड़ दो , तो हम संत हो जायें गें यही हमारे ऋषियों  का दर्शन है l मित्रों हम जो देखना चाहते हैं , हमे वही दिखाई पड़ता है l दुःख देखने वाले को अपने जीवन में दुःख ही दुःख दिखाई पड़ता है , और सुख देखने वाले को अपने दुःख मय जीवन मे भी सुख ही सु...

शिक्षा

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शिक्षा  से ज्ञान का , ज्ञान से विचार का ,विचार से क्रिया का और क्रिया से चरित्र का  निर्माण होता है l l इसलिए शिक्षा का स्थान सर्वोपरि है l एक चिड़िया  सुबह - सुबह , एक वृक्ष पर बैठ कर , चूँ - चूँ कर रही थी l पास से एक वैष्णो महात्मा गुज़र रहे थे l उन्होंने चिड़िया के स्वर को सुना और कहने लगे की वह  ! चिड़िया  ,प्रभुका नाम कितनी  मधुरता से ले रही है , कह रही है , राम ,लक्ष्मण , दशरथ , वाह  ! l पास ही एक ठेला वाला  था , जो की वहीं पर सब्ज़ियां  बेचता  था , उसने सुना तो कहा महाराज  यह चिड़िया  कह रही है , धनिया  , मिर्ची  , अदरक l पास से एक फ़क़ीर गुज़र रहे थे , उन्होंने सुना तो कहा की यह चिड़िया  ,तो उस निर्गुण निराकार  का  नाम  ले रही है , कह रही है , सुभान तेरी कुदरत l तो चड़िया क्या बोल रही है , ये तो चिड़िया ही जाने , परन्तु अपने - अपने संस्कारों के भावना के आधार पर ही सामने वाले का स्वरुप  दिखाई  देता है l एक बार पंडित दीनदयाल उपाध्या जी(banaras hindu univer...