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Showing posts from November, 2019

हमारे तो एक प्रभु हैं...

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  बड़े भाग मानुष तन पावा। मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिलता है,भगवान की कृपा से मिलता है।इसलिए यह शरीर भगवान के लिए है।उनको प्राप्त करने के लिए है। वास्तव में एक मेरे प्रभु श्री सीताराम जी के अलावा और किसी की सत्ता है ही नहीं।आप विचार करके देखें,ये शरीर,ये संसार मिटनेवाला है,निरंतर मिट रहा है। जब हम मां के पेट से पैदा हुए थे,उस समय इस शरीर की क्या अवस्था थी और आज जब देखते हैं तो इसकी कैसी अवस्था है। ये संसार,ये शरीर पूर्व में जैसा था आज वैसा नहीं है और आज जैसा है,भविष्य में ऐसा नहीं रहेगा।यह निरंतर बदलने वाला है,बदल रहा है।लेकिन जो कभी नहीं बदलता सदा एकरूप बना रहता है वह केवल भगवद तत्व है,परमात्म तत्व है। हमारे प्रभु सीताराम जी निरंतर रहने वाले हैं और यह संसार  छूटनेवाला है। इसलिए हमें चाहिए कि हम दृढ़ता से यह मान लें कि प्रभु हमारे हैं और हम प्रभु के हैं।जैसे छोटा सा बालक कहता है कि मां मेरी है।कोई उससे पूछे कि बता मां तेरी क्यों है।तो इसका उत्तर उसके पास नहीं है।उसके मन में कोई शंका,कोई संदेह नहीं हैं। मां उसकी है, बस।फिर चाहे आप कुछ भी कहें, उसके लिए आपकी कोई बात महत्व ...

पुरुषार्थ

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धर्मार्थकाममोक्षांचा पुरुषार्थ उदाह्रतः   धर्मार्थकाममोक्षांचा पुरुषार्थ उदाह्रतः   मनुष्य श्रेष्ठ है तो अपनी बुद्धि के कारण ,इसलिए हम मनुष्यों को परमात्मा की दी हुयी उस बुद्धि का उपयोग कर पहले तो यह सोचना चाहिए कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है ,क्या खाना -पीना और मर जाना यही जीवन है l किसान खेती करता है ,खेती द्वारा अनाज उत्पन्न कर हम लोगों तक पहुंचता है और हम उस अन्न का भरण कर बस शरीर में मल बनाते रहते हैं l किसान अन्न पैदा करे और हम उसे खा कर उसका मल बनाते रहें क्या यही पुरुषार्थ है? क्या यही जीवन है ?नहीं ,भोजन तो पशु -पक्षी ,कीट-पतंग अदि सभी करते हैं l फिर मनुष्यों की विशेषता क्या रही l हमारे शास्त्रों के अनुसार जीव को मनुष्य योनि चौरासी लाख योनियों के पश्चात् प्राप्त होती है , इसीलिए कहा गया है कि 'बड़े भाग मानुस तन पावा ' (मानस ) जीव को यह  शरीर बड़े ही भाग्य से प्राप्त होता है ,इस मनुष्य शरीर को देव दुर्लभ शरीर कहा गया है अर्थात देवों के लिए भी यह मनुष्य शरीर अति दुर्लभ है l तो क्या दिन में भोजन के लिए कार्य करना और रात्रि में गाढ़ी निद...

रामकथा की महिमा

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श्री सीतारामजी की कथा जगत प्रसिद्ध कथा है जिसने हजारों वर्षों से जन मानस को प्रभावित किया है ,आदि -अनादि काल से ही भगवान् की सुखदायनी कथा ने सभी जीवों को विश्राम प्रदान किया है l भगवान् की कथा कल्पवृक्ष है जिसने समस्त जीवों के मनोरथों को सदैव पूर्ण किया है l  भगवान् की कथा पंडितों को ,विद्वानों को विश्राम प्रदान करनेवाली ,सभी मनुष्यों को प्रसन्न करनेवाली तथा कलयुग के समस्त पापों का नाश करनेवाली है l जहाँ एक ओर कलयुग रूपी साँप के लिए भगवान् की कथा मोरनी है वहीं दूसरी ओर विवेक रूपी अग्नि को प्रकट करने के लिए भगवान् की कथा अरणि है( मंथन की जाने वाली लकड़ी ) अर्थात भगवान् की कथा से शाश्वत ज्ञान की प्राप्ति होती है l                        बुध बिश्राम सकल जन रंजनि l रामकथा कलि कलुष बिभंजनि ॥               रामकथा कलि पंनग भरनी  l पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी  ॥ यह जीवन दुखमय है किन्तु भगवान् की कथा ने इस दुखमय जीवन को सुखमय बनाया है ,अपने श्रेष्ठ जीवन चरित्र से ...

योग क्या है ?

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प्रकृति का यह नियम है कि अपूर्ण हमेशा पूर्ण की और आकृष्ट होता है ,उदाहरण के तौर पर जल को ही ले लीजिये ,यांत्रिक विधा का आलंबन लेकर आप यदि उसे १० मंज़िला इमारत पर भी चढ़ा दें तब भी उसका बहाव नीचे की ओर ही होगा क्योंकि वह अंश है ओर अंशी है समुद्र उसका आकर्षण स्वभाविक रूप से समुद्र की ओर ही होगा कारण वह अपूर्ण से पूर्ण होना चाहता है l इसी तरह जीव भी परमात्मा का अंश रूप है ,वह भी परमात्मा से एकत्व स्थापित कर अपूर्ण से पूर्ण होना चाहता है किन्तु माया और अज्ञान के आवरण के कारण वह मिथ्या जगत को सत्य मानता है ओर अनेक दुखों को भोगता है l योग जीव के इन्ही दुखों का नाश करते हुए उसे उसके वास्तविक स्वरूप की ओर ले जाता है l 'योग ' शब्द 'युज समाधौ' धातु से बनता है ,इसका अर्थ है समाधि l 'युजिर योगे ' धातु से भी योग शब्द बनता है जिसका अर्थ है जुड़ना अर्थात जीवात्मा का परमात्मा के साथ एकत्व हो जाना किन्तु योग का ऐसा स्थूल अर्थ लेना उचित नहीं है कारण जीवात्मा ओर परमात्मा पृथक वस्तु नहीं हैं ,वे चेतनत्वेन एक ही हैं l भेद तो अविद्या के कारण है , अविद्या के मिट जाने प...

मनुष्य के दुखों का कारण

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वर्तमान परिवेश में वेदनाओं का एक सिलसिला सा चल रहा है , हर व्यक्ति किसी न किसी रोग से ग्रस्त है ,शारीरिक अपंगता न होने पर भी , जीवन अपंग हो गया है l जीवन की जीवंतता कहीं खो सी गयी है l आखिर क्या कारण है इस सुखी जीवन धारा के अवरुद्ध होने का , क्योंकि शास्त्रों का कथन है कि जीव परम आनंदघन परमात्मा का अंश है इसलिए वह स्वयं भी आनंद रूप है , तो फिर वह कष्ट क्यों भोग रहा है l  ' मया ततमिदं सर्वं मत्स्थानि सर्वभूतानि '  ( बृहदारण्य .1/4 /10 ) उपनिषद का कथन है कि सब मुझमें हैं और मैं सब में हूँ लेकिन इस बात को जान कर भी जीव अनजान बने रहता  है , यही कारण है कि वह दूसरों से दुर्व्यवहार करता है और अंत में दुःख पाता है l गीता में भगवान कहते हैं कि एक आत्मा ही सत्य है , सब जगत मिथ्या है '  ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या '  (  गीता 9/4 )  रोजाना अनेकों व्यक्तियों को हम मरते हुए देखते हैं फिर भी हमारी बुद्धि में यह बात नहीं आती कि यह शरीर नाशवान है ,हम अज्ञानता में इतने लिप्त हो गए हैं कि सत्य को जान कर भी हम उसे जानना नहीं चाहते , जिसके कारण हम क्षणभंगुर व...

संत और असंत

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अच्छे लोगों की सराहना हर कोई करता है , अच्छे व्यक्ति किसे अच्छे नहीं लगते ,वे सभी के दुखों को अपना दुख समझते हैं और उनकी सहायता करते हैं ,ऐसे लोग जीवन के वास्तविक धर्म को जानने वाले होते हैं l जीवन का वास्तविक धर्म 'सेवा ' है , जिसे सेवा धर्म का ज्ञान हो , वह संसार में कुछ भी पा सकता है उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है l सेवा धर्म से ही संत एक नाथ ने भगवान् 'विट्ठल ' को प्राप्त किया तथा हनुमान जी ने रामजी को ,इसलिए जिसने सेवा के धर्म को जान लिया उसके लिए कुछ और जानना शेष नहीं l संसार में अनेक ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने मानव जाती की सेवा को ही अपना धर्म बना लिया l ऐसे ही लोगों को समाज ने संत कहकर पुकारा , समाज ने उन्हें संत की उपाधि दी जिससे कि वह जग के प्यारे हो गए l ऐसे ही जिन्होंने सदैव दूसरों का अहित किया उन्हें संसार ने अपयश देकर असंत कह दिया जिसके कारण सर्वत्र उनकी निंदा हुयी l सत्य कहा है रामायण ने कि 'भल अनभल निज निज करतूती ' व्यक्ति भला और बुरा अपनी -अपनी करनी के कारण होता है ,जिसकी जैसी करनी होती है उसके अनरूप ही वह फल प्राप्त करता है l ...