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हमारे तो एक प्रभु हैं...

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  बड़े भाग मानुष तन पावा। मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिलता है,भगवान की कृपा से मिलता है।इसलिए यह शरीर भगवान के लिए है।उनको प्राप्त करने के लिए है। वास्तव में एक मेरे प्रभु श्री सीताराम जी के अलावा और किसी की सत्ता है ही नहीं।आप विचार करके देखें,ये शरीर,ये संसार मिटनेवाला है,निरंतर मिट रहा है। जब हम मां के पेट से पैदा हुए थे,उस समय इस शरीर की क्या अवस्था थी और आज जब देखते हैं तो इसकी कैसी अवस्था है। ये संसार,ये शरीर पूर्व में जैसा था आज वैसा नहीं है और आज जैसा है,भविष्य में ऐसा नहीं रहेगा।यह निरंतर बदलने वाला है,बदल रहा है।लेकिन जो कभी नहीं बदलता सदा एकरूप बना रहता है वह केवल भगवद तत्व है,परमात्म तत्व है। हमारे प्रभु सीताराम जी निरंतर रहने वाले हैं और यह संसार  छूटनेवाला है। इसलिए हमें चाहिए कि हम दृढ़ता से यह मान लें कि प्रभु हमारे हैं और हम प्रभु के हैं।जैसे छोटा सा बालक कहता है कि मां मेरी है।कोई उससे पूछे कि बता मां तेरी क्यों है।तो इसका उत्तर उसके पास नहीं है।उसके मन में कोई शंका,कोई संदेह नहीं हैं। मां उसकी है, बस।फिर चाहे आप कुछ भी कहें, उसके लिए आपकी कोई बात महत्व ...

आखिर क्यों हुई नारद जी को चिंता? रामचरितमानस रहस्य ( भाग -1)

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श्री नारद जी भगवान के भक्त हैं, वैष्णों में उत्तम हैं ( नारद वैष्णवोत्तमम) अतः वे निरंतर दूसरों के कल्याण को लेकर चिंतित रहते हैं। वास्तव में वैष्णव वही है जो सदा सब के सुख की कामना में रत रहता है,सबके कल्याण की कामना में रत रहता है। जो केवल स्वयं के बारे में सोचता है, निज स्वार्थ का ही पोषण करता है,वह वैष्णव नहीं है,वह भक्त नहीं है।वह तो मात्र दंभी है,पाखंडी है। एक बार की बात है भक्तराज श्री नारद जी महाराज समस्त लोकों पर कृपा करते हुए,समस्त लोकों को भगवन्नाम,लीला, गुण सुनाते हुए,उन्हे पवित्र करते हुए। ब्रह्म लोक पहुंचे।वहां मूर्तिमान वेदों से घिरे हुए,बाल सूर्य के समान प्रभा से पूरे सभा भवन को दीप्यमान करते हुए,प्रकाशित करते हुए, मार्कण्डेय आदि ऋषियों से बारंबार स्तुति किए जाते हुए, संपूर्ण पदार्थों का ज्ञान रखने वाले तथा भक्तों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले जगत के सृजन करता श्री ब्रह्मा जी को देखर कर,नारद जी ने उन्हें दंडवत प्रणाम किया और भक्ति भाव से उनकी स्तुति करने लगे…पिताम्: ब्रह्मा जी बड़े प्रसन्न हुए और नारद जी से बोले - हे! नारद बड़े दिनों बाद आए हो पुत्र,बताओ क्य...

वेदांत क्या है?

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  विषय की दृष्टि से वेदों के तीन भाग हैं,जिन्हे तीन कांडों के रूप में भी जाना जाता है। कर्मकांड,उपासना कांड और ज्ञानकांड। ज्ञानकांड वेद का शीर्ष स्थानीय भाग है,अर्थात अंतिम भाग है।और क्योंकि यह वेद का अंतिम भाग है,अंतिम कांड है,इसलिए इसे ही वेदांत कहा गया।विश्व के मूल तत्त्व का विचार,सृष्टि के आदि कारण परमात्म तत्व का विचार इसी ज्ञानकांड में किया गया है। ज्ञान कांड सिद्धांत है।और कर्मकांड तथा उपासना कांड ये साधन स्वरूप हैं।इसका अभिप्राय यह हुआ कि कर्म और उपासना ये योग्यता प्रदान करते हैं,जीवन में जब हम कर्म करते हैं,तब हम उस कर्म के द्वारा योग्य बनते हैं, और फिर हमारी योग्यता के अनुरूप चीज़ें हमें प्राप्त होती हैं। ऐसे ही कर्म और उपासना ये साधन हैं,उस परमात्म तत्त्व को प्राप्त करने में। जब कर्म और उपासना के द्वारा हमारा अंतः करण शुद्ध हो जाता है,तब वह परमात्म तत्व स्वत: ही प्रकट हो जाता है।प्यारे साथियों,परमात्मा को प्राप्त नहीं करना है क्योंकि वह तो प्राप्त ही है।हमारे भीतर ही अंतर्यामी रूप से विद्यमान है। अस प्रभु हृदय अछत अविकारी (मानस) हमें तो बस कर्म और उपासना का आश्रय लेक...

सुनिए महर्षि दधीचि की अद्भुत कथा

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  प्रतापी तप: पूत महर्षि अथर्वा और त्याग मूर्ति माता शांति के पुत्र महर्षि दधीचि का नाम इतिहास के पृष्ठों में अमर है,शायद ही कोई अभागा होगा जो इतिहास के इस महानतम चरित्र से अनभिज्ञ होगा।महर्षि दधीचि का नाम भारतीय संस्कृति का प्राण है।प्यारे साथियों, विश्व में अनेक संस्कृतियां हुईं,जो काल कवलित हो गईं,काल के गाल में समा गईं लेकिन भारतीय संस्कृति आज भी सुमेरू पर्वत की तरह अचल है क्योंकि विश्व की अनेकानेक संस्कृतियों के मूल में जहां ' निज स्वार्थ ' था, है। वहीं भारत की इस महानतम वैदिक संस्कृति के मूल में, सदा से ' परोपकार ' की भावना रही है। और जो परोपकारी होते हैं,उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं होता,कुछ भी दुर्लभ नहीं होता।  परहित बस जिनके मन माहीं। तिन कहुं जग दुर्लभ कछु नाही। (मानस) बालकपने से ही दधीचि बड़े शांत, परोपकारी और भगवान के भक्त थे। उन्हें भूत भावन भगवान शंकर का भजन करना तथा उनके ध्यान में लीन रहना,  अच्छा लगता था।कुछ बड़े होते ही पितासे आज्ञा लेकर वे तप करने चले गए। परम पवित्र,रमणीय हिमालय पर्वत के एक पवित्र शिखरपर,वे सैकड़ों वर्षों तक तप करते रहे। इसी बीच त...

प्रेम क्या है?

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प्रेम सार तत्व है,रस तत्व है। प्रायः लोगों को सार बात बड़ी अच्छी लगती है,वे कहते हैं महाराज बस सार बात बतादो और जब सार बात बताओ तो उनको विश्वास नहीं होता।विश्वास न होने के पीछे कारण यही है कि लोग सीधे सार बात समझना चाहते हैं,लेकिन सार यदि सीधे समझ में आ जाता तो सार थोड़े ही होता।जैसे आप फल का रस पीते हैं,रस की मिठास से मीठे होते हैं,तो क्या वह रस सीधे प्राप्त हो जाता है?उसके लिए तो पहले आप को फलों को निचोड़ना होगा।बिना फलों को निचोड़े रस कैसे मिलेगा,सार कैसे मिलेगा। तो प्रेम सार है,रस है।ये रस तभी प्राप्त होगा,अनुभव में आएगा जब (मैं को) अहंकार को, हम निचोड़ देंगे।समाप्त कर देंगे।जब मैं तिरोहित हो जायेगा,घुल जायेगा तब प्रेम प्राप्त होगा,प्रगट होगा।   प्रेम की एक विशेषता है कि प्रेम विस्मरण करा देता है।मैं और मेरे पन की पहुंच वहां तक नहीं रह जाती। प्रेम जब भीतर फूटता है,तब संसार का,स्वयं का भी विस्मरण हो जाता है,कुछ शेष रह जाता है तो बस हमारा प्रेमास्पद,जिससे हम प्रेम करते हैं।संसार में आप ने अनुभव किया होगा कि जब किसी को किसी से प्रेम होता है,तब उसकी क्या दशा होती है।वह इ...

विज्ञान और अध्यात्म

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सत्य वस्तु का दर्शन ज्ञान है और जिस प्रक्रिया से उस सत्य वस्तु का दर्शन होता है,वह प्रक्रिया ही विज्ञान है।अब प्रश्न उठता है कि ये सत्य वस्तु क्या है।आज का विज्ञान जिसको परिभाषित करता है,जिसका वर्णन करता है,वह विज्ञान अपरा विज्ञान है।अपरा अर्थात परिवर्तनशील। पृथ्वी,वायु,जल,आकाश,अग्नि ये पंच महाभूत और  मन,बुद्धि तथा अहंकार ये आठ अपरा यानी परिवर्तनशील प्रकृति है।जिस धातु से संसार निर्मित है,उसी धातु से यह शरीर आदि भी निर्मित है।इसलिए शरीर की संसार से साथ एकता है,क्योंकि दोनों ही ' नहीं' रहने वाले हैं,प्रतिक्षण बदलने वाले हैं। तो बदलने वाले संसार से बदलने वाले शरीर की एकता है।और जो नहीं बदलता, सदा एक रूप रहता है,उस परमात्मा के साथ जीव की एकता है।तो कहने का अभिप्राय यह है कि जो सदा रहने वाला परमात्म तत्व है,सत्य तत्व है।वह सदा बदलने वाले शरीर से, संसार से,जो असत्य है,उससे किस प्रकार जाना जा सकता है।सत्य को तो सत्य से ही जाना जा सकता है,असत्य से सत्य को जानना संभव नहीं है।इसलिए आज का विज्ञान,अपरा विज्ञान है, जड़ विज्ञान है,क्योंकि उसकी पहुंच केवल और केवल संसार तक ही है,सीमि...

स्वाभिमान और अभिमान में क्या अंतर है?

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  स्व से तात्पर्य है, स्वयं से।ये ' स्व' स्वयं का संबोधन है।उपनिषदों में यह स्व ही आत्मा है, शरीर के भीतर स्थित जीव का यथार्थ स्वरूप।लेकिन स्व को जानता ही कौन है। आप अगर ध्यान देंगे तो स्वाभि मान शब्द में भी अभिमान है। स्व और अभिमान, इन दो शब्दों से मिल कर स्वाभिमान शब्द बना है,निर्मित हुआ है। तो अब प्रश्न यह उठता है कि जब दोनों में ही अभिमान है, तो फिर क्यों अभिमान बुरा और स्वाभिमान अच्छा हुआ।  प्यारे साथियों,स्वाभिमान और अभिमान में अंतर बस स्व का है।जिसने स्व को जान लिया अर्थात अपने यथार्थ स्वरूप को जान लिया।वह उसमें स्थित हो जाता है,और स्वयं में स्थित होते ही,उसका देह संबंधित अभिमान समाप्त हो जाता है।जिसको स्व का ज्ञान नहीं है, उसके भीतर जो अभिमान है वह देह का अभिमान है।वह स्व को यानी स्वयं को देह मानता है।उसी के रख रखाव में लगा रहता है,उसी की साज सज्जा में लगा रहता है।उसको लगता है कि सब कुछ वही कर रहा है अर्थात उसका यह शरीर ही कर रहा है,और यदि मुझे अर्थात मेरे इस शरीर को कुछ हो जाए तो सारे व्यापार रुक जायेंगे।सारे काम रुक जायेंगे।तो स्व को,अपने यथार्थ स्वरूप को न जा...

अहंकार का त्याग करें

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  संसार में कोई बहुत गरीब है, दीन है तो कोई बहुत अमीर,किसी के पास खाने के लिए बहुत कुछ है,तो किसी के पास कुछ भी नहीं है लेकिन एक चीज़ जो सब के पास बराबर है वह है अहंकार।राजा हो या रंक अहंकार ने किसी को नहीं छोड़ा।ऐसा जरूरी नहीं है कि आदमी के पास कुछ हो तभी उसके भीतर अहंकार होगा।कुछ नहीं होना अहंकार न होने का सूचक नहीं है।चाहे कुछ हो अथवा न हो अहंकार तो सब के पास है। प्यारे साथियों, इस अंहकार के कारण ही आदमी अपने वास्तविक स्वरूप को भूला हुआ इस संसार में फिर रहा है।गोस्वामी जी कहते हैं... अहंकार अति दुखद डमरुआ ये अहंकार वह डमरू है जो कि जब बजता है,तो बड़ा भारी दुःख होता है।अब देखिए न परिवार में बजा तो परिवार टूट गए, समाज में बजा तो समाज टूट गए और भीतर बजा तो हम टूट गए। अहंकार तोड़ता है, और तोड़ना ही उसका काम है।उसे उसके अलावा और कुछ आता नहीं, जोड़ने का काम तो कभी अहंकार से हुआ ही नहीं। फिर पता नहीं क्यों लोग - बाग उसे अपने हृदय से, चिपकाए घूमते हैं। प्यारे साथियों, आदमी भी अजीब है, अपने आप को बड़ा भारी पंडित समझता है लेकिन इतना भी नहीं जानता कि उसके लिए अच्छा क्या है, प्रेम या अहंकार...

क्या आप भी मन की इच्छाओं से परेशान हैं?

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  इच्छा नहीं करनी चाहिए मैं ऐसा कभी नहीं कहता।क्योंकि किसी चीज़ की इच्छा न करना भी एक इच्छा ही है।अब आप चाहते हैं कि मेरी सारी इच्छाएं समाप्त हो जाएं,मैं किसी चीज़ की कोई इच्छा न करूं,मुझमें कोई भी किसी भी प्रकार की कोई इच्छा शेष न रह जाए।तो ऐसा चाहना भी तो एक इच्छा ही है। आपने बहुत लोगों से सुना होगा कि अपनी इच्छाओं को दबा दें, उन्हें कम करें,सीमित करें।लेकिन किसी से ये नहीं सुना होगा कि आप इच्छा करें ही न।क्योंकि यह संभव नहीं है।जल है तो तरंगों का होना स्वाभाविक है। ऐसे ही मन है,तो इच्छाओं का उठना स्वाभाविक सी बात है।रंक से लेकर राजा तक सभी के मन में इच्छाएं उठती हैं, और हर कोई चाहता है कि उसके मन में उठी इच्छा पूर्ण हो जाए।तो इच्छाओं का उठना समस्या नहीं है,समस्या है कुछ भी पाने की इच्छा का उठना,कितनी भी इच्छा का उठना। आइए इसको समझते हैं।प्रिय साथियों,कुछ भी पाने की इच्छा नहीं होनी चाहिए।आदमी जितना पचा सकता है,अगर उतना ही भोजन करेगा तो वह हमेशा स्वस्थ और निरोगी रहेगा,यह पक्की बात है।भूख से अधिक, पाचन से अधिक खाना बहुत हानिकारक है,यह कुछ ही समय में आप को कई प्रकार के रोगों से ग्रस...

मन के भयभीत रहने का क्या कारण है?

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  मन का भयभीत होना, सदा भय से ग्रसित होना,मन की दुर्बलता का सूचक है। दुर्बल मन हमेशा डरते रहता है कि कहीं कुछ अनिष्ट न हो जाए, कहीं मेरी हानि न हो जाए।सत्य तो यह है कि जिसकी दृष्टि सांसारिक वैभव पर होती है, उसका मन दुर्बल होता है क्योंकि संसार का बल कच्चा है।लेकिन जिसकी दृष्टि भगवान पर होती है,उसका मन बलवान होता है,क्योंकि भगवान का बल सच्चा होता है। महाभारत के युद्ध में जब दुर्योधन पांडवों की व्यूह रचना देखता है, तब वह चिंता से ग्रस्त हो जाता है।उसका मन भय से व्याकुल हो उठता है। वह सोचता है कि हमारी सेना बड़ी होने पर भी अर्थात पांडवों की अपेक्षा चार अक्षोहिणी अधिक होने पर भी पांडवों पर विजय प्राप्त करने में, है तो असमर्थ। कारण कि हमारी सेना में मतभेद है।उसमें इतनी एकता, निर्भयता, निःसंकोचता नहीं है, जितनी कि पांडवों की सेना में है।हमारी सेनाके मुख्य संरक्षक पितामह भीष्म हैं और वे तो उभय पक्षपाती हैं अर्थात उनके भीतर कौरव और पांडव दोनों सेनाओं का पक्ष है।और वे कृष्ण के भी बड़े भक्त हैं। युधिष्ठिर के लिए तो उनके मन में विशेष आदर है।अर्जुन पर भी उनका बड़ा प्रेम है,बड़ा लाड़ है।इसलिए व...