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Showing posts from December, 2019

हमारे तो एक प्रभु हैं...

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  बड़े भाग मानुष तन पावा। मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिलता है,भगवान की कृपा से मिलता है।इसलिए यह शरीर भगवान के लिए है।उनको प्राप्त करने के लिए है। वास्तव में एक मेरे प्रभु श्री सीताराम जी के अलावा और किसी की सत्ता है ही नहीं।आप विचार करके देखें,ये शरीर,ये संसार मिटनेवाला है,निरंतर मिट रहा है। जब हम मां के पेट से पैदा हुए थे,उस समय इस शरीर की क्या अवस्था थी और आज जब देखते हैं तो इसकी कैसी अवस्था है। ये संसार,ये शरीर पूर्व में जैसा था आज वैसा नहीं है और आज जैसा है,भविष्य में ऐसा नहीं रहेगा।यह निरंतर बदलने वाला है,बदल रहा है।लेकिन जो कभी नहीं बदलता सदा एकरूप बना रहता है वह केवल भगवद तत्व है,परमात्म तत्व है। हमारे प्रभु सीताराम जी निरंतर रहने वाले हैं और यह संसार  छूटनेवाला है। इसलिए हमें चाहिए कि हम दृढ़ता से यह मान लें कि प्रभु हमारे हैं और हम प्रभु के हैं।जैसे छोटा सा बालक कहता है कि मां मेरी है।कोई उससे पूछे कि बता मां तेरी क्यों है।तो इसका उत्तर उसके पास नहीं है।उसके मन में कोई शंका,कोई संदेह नहीं हैं। मां उसकी है, बस।फिर चाहे आप कुछ भी कहें, उसके लिए आपकी कोई बात महत्व ...

      'ब्रह्मचर्य' आश्रम कल्याण का श्रेष्ठ मार्ग

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माता-पिता को चाहिए कि 5 वर्ष का हो जाने पर बालक- बालकों को ऋषिकुल या गुरुकुल में शिक्षा हेतु भेजें अथवा अपने घर पर ही रख कर उसे स्वयं विद्या पढ़ाएं कम से कम 10 वर्ष उसे शिक्षा दें। चाणक्य नीति में कहा गया है- लालयेत पंच वर्षाणि दश वर्षाणि ताड़येत  । प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रे मित्रत्वमाचरेत     ।।(चाणक्य-3/18) 5 वर्ष तक बच्चे का लालन-पालन करना चाहिए उसके बाद 10 वर्ष तक उस पर शासन करना चाहिए तत्पश्चात जब वह16 वर्ष का हो जाए तो उसके साथ मित्र की भांति व्यवहार करना चाहिए।आचार्य चाणक्य द्वारा चाणक्य नीति में यह निर्देश दिए गए हैं जिसके पालन से आप अपने पुत्र का जीवन उत्कर्ष की ओर मोड सकते हैं। उचित यही है कि माता-पिता बाल्यकाल में ही बालक को विद्या अभ्यास कराएं क्योंकि जो माता-पिता अपने बालक को विद्या नहीं पढ़ाते ,वे बालक के साथ शत्रुता का व्यवहार करते हैं। इसलिए ऐसे माता एवं पिता को शत्रु तुल्य कहा गया है-   माता शत्रु: पिता वैरी येन बालो न पठित:  ।    न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा     ।। वह माता शत्रु है और...

भगवान को कैसे पाएं

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मन को रोककर परमात्मा में लगाने का एक अत्यंत सुलभ और आशंकारहित उपाय है, जिसका अनुष्ठान सभी कर सकते हैं ,सभी इसमें अधिकृत हैं इसलिए इस सहज मार्ग को कोई भी व्यक्ति अपना सकता है और अपने परम धेय परमात्मा को पा सकता है । वैदिक सनातन धर्म में फल चौर्य नहीं है , प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न-भिन्न कर्मों का विधान किया गया है किंतु किसी भी व्यक्ति को फल से वंचित नहीं रखा गया है उदाहरण के तौर पर यदि एक ब्राह्मण नियम पूर्वक अपने वैदिक धर्म का पालन करता है तो उसे जो सुगति प्राप्त होगी ,वही सुगति एक शूद्र को भी अपने धर्म का नियम पूर्वक अनुष्ठान करने से प्राप्त होगी , इस संसार में आया हुआ हर व्यक्ति अपने जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करे, इसके लिए अनेक मार्ग इस धर्म ने बताए हैं ,जिसमें से यह सबसे सरल मार्ग है ,जिसके अनुष्ठान से आप अपने गंतव्य तक पहुंच सकते हैं ,वह है आने-जाने वाले श्वास-प्रश्वास की गति पर ध्यान रखकर श्वास के द्वारा श्रीभगवान के नाम का जप करना। यह अभ्यास बैठते- उठते ,चलते-फिरते, सोते- खाते हर समय, प्रत्येक अवस्था में किया जा सकता है इसमें श्वास जोर-जोर से लेने की भी कोई आवश...

'कर्म' द्वारा कुछ भी पाया जा सकता है

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जीवन, मुक्त होने के लिए प्राप्त हुआ है न कि अनेक बंधनो में बंधने के लिए , 'बड़े भाग मानुस तन पावा ' मनुष्य से बड़ा बड़भागी और कोई नहीं है कारण कि उसे परमात्मा ने अवसर प्रदान किया है ,जहाँ वह स्वतंत्र है कर्म करने को ,वह अपने कृतित्व द्वारा स्वयं के जीवन का निर्माण कर सकता है ,स्वयं का उत्थान कर सकता है l संसार में सब कुछ सुलभ है किन्तु उसको पाने के लिए मनुष्य को मेहनत करनी होगी ,बिना कष्ट किए कुएं से पानी नहीं निकाला जा सकता ,इसी तरह इस संसार रूपी कुएं से यदि आप सुख रूपी ,शांति और आनंद रूपी जल चाहते हैं तो आप को उसके लिए कठिन परिश्रम करना होगा , 'सकल पदारथ है जग माही । करम हीन नर पावत नाही ' जगदीश्वर ने इस जगत में सब कुछ बनाया है ,सारी सुख -सुविधाएँ उसने इस जगत में भर दी हैं किन्तु उन सुविधाओं को यदि किसी को पाना है तो उसके लिए उसे कर्म करना होगा और उसके कर्मों के आधार पर ही उसे वस्तुएं प्राप्त होंगी ,इसलिए भगवान् ने जीव को कर्म करने में स्वतंत्रता दी है ,कर्म करने के लिए जीव किसी के अधीन नहीं है , वह स्वतंत्र है ,अपनी इच्छा अनुसार वह अपना जीवन जी सकता है उसे बन...

दूसरों का हित चाहने वाले कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं

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अपने लिए तो हर व्यक्ति सोचता है किन्तु दूसरों के आनंद के लिए सोचने वाले लोग जगत में अधिक नहीं हैं ,इस असार संसार में नदियों और तालाबों के सामान ही मनुष्य अधिक हैं जो अपनी ही बाढ़ से बढते हैं लेकिन समुद्र सा तो कोई बिरला ही होता है जो पूर्ण चन्द्रमा को देख कर उमड़ पड़ता है अर्थात दूसरों की खुशियों को देख कर ,उन्हें खुश जान कर वह आनंद से भर उठता है उमड़ पड़ता है l जो दूसरों का हित करना जानते हैं वे साधु हैं ,जगत उनकी दोनों हाथ जोड़ कर जोड़ वंदना करता है ,भगत सिंह हँसते हुए फांसी पर झूल गए, किसके लिए ,हमारे लिए लेकिन क्या वे हमें जानते थे ,नहीं वे नहीं जानते थे ,तो उन्होंने ऐसा क्यों किया ,उन्होंने ऐसा किया क्योंकि परहित उनका स्वभाव था ,उनकी प्रकृति थी ,इसलिए वे अमर हो गये l याद रखें अमर वही हो सकता है जो विष को पचाने का सामर्थय रखता हो  ,जिसने अपने जीवन में उत्पन्न विकारों को सोख लिया है ,वही निर्मल है ,वही वास्तव में अमर है l

ब्रह्म मुहूर्त में क्यों उठना चाहिए ?

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आज जिस विषय पर हम चर्चा करने जा रहे हैं वह बहुत ही महत्वपूर्ण है ,हर व्यक्ति अपने जीवन में आनंद चाहता है ,सदैव उत्तम स्वास्थ्य चाहता है वह चाहता है कि सदा -सर्वदा उसका जीवन सुख और शांति से कटे किन्तु इसका सूत्र क्या है ,जिसके पालन से मनुष्य जीवन में दीर्घायु रहकर सुख पूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है तथा अपने स्वार्थ -परमार्थ को साध सकता है l आईये हम जीवन के उस सूत्र को जाने जिसके पालन से हम अपने जीवन में आनंद को आमंत्रित कर सकते हैं l वह सूत्र है ,सूर्योदय के चार घडी पहले ही अपने बिस्तर को छोड़ देना l श्रुति ,नीति और पुराणों में जहाँ तक देखते हैं ,वहीं सूर्योदय से पूर्व सोकर उठना लाभदायक पाते हैं l भाव प्रकाश जो की आयुर्वेद का मूल ग्रन्थ है ,उसके पूर्व खंड के चौथे प्रकरण में लिखा है -    ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत स्वस्थो रक्षार्थमायुषः    तत्र दुःखस्य शान्त्यर्थ स्मरेद्धिमधुसूदनम ॥ अर्थात स्वस्थ मनुष्य अपने जीवन की रक्षा के लिए चार घडी तड़के उठे और उस समय दुःख का नाश करने के लिए भगवान् का स्मरण ,भजन करे l प्रातः काल उठने का जो आनंद है ,वह अतुलनीय है ,उस समय ...