माता-पिता को चाहिए कि 5 वर्ष का हो जाने पर बालक- बालकों को ऋषिकुल या गुरुकुल में शिक्षा हेतु भेजें अथवा अपने घर पर ही रख कर उसे स्वयं विद्या पढ़ाएं कम से कम 10 वर्ष उसे शिक्षा दें। चाणक्य नीति में कहा गया है-
लालयेत पंच वर्षाणि दश वर्षाणि ताड़येत ।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रे मित्रत्वमाचरेत ।।(चाणक्य-3/18)
5 वर्ष तक बच्चे का लालन-पालन करना चाहिए उसके बाद 10 वर्ष तक उस पर शासन करना चाहिए तत्पश्चात जब वह16 वर्ष का हो जाए तो उसके साथ मित्र की भांति व्यवहार करना चाहिए।आचार्य चाणक्य द्वारा चाणक्य नीति में यह निर्देश दिए गए हैं जिसके पालन से आप अपने पुत्र का जीवन उत्कर्ष की ओर मोड सकते हैं।
उचित यही है कि माता-पिता बाल्यकाल में ही बालक को विद्या अभ्यास कराएं क्योंकि जो माता-पिता अपने बालक को विद्या नहीं पढ़ाते ,वे बालक के साथ शत्रुता का व्यवहार करते हैं। इसलिए ऐसे माता एवं पिता को शत्रु तुल्य कहा गया है-
माता शत्रु: पिता वैरी येन बालो न पठित: ।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा ।।
वह माता शत्रु है और पिता वैरी ,जिसने अपने बच्चे को विद्या नहीं पढ़ाई क्योंकि बिना पढ़ा हुआ बालक सभा के बीच में वैसे ही शोभा नहीं पाता, जैसे हंस के बीच बगुला।
बालक का यह कर्तव्य है कि वह गुरु के पास रहकर विद्या अध्ययन करे, ब्रह्मचर्यधर्म का पालन करते हुए शास्त्रोक्त विधि के अनुसार यगोपवित धारण कर वेदाध्ययन करना ही उस बालक के जीवन का लक्ष्य होना चाहिए तथा अनेक प्रकार की भाषाओं, लिपियों और धर्मशास्त्रों का ज्ञान उसे उस काल में प्राप्त करना चाहिए जिससे कि वह स्वयं का तथा समाज का उत्थान कर सके। बालक को निष्कपट भाव से भिक्षा लाकर गुरु को समर्पित करते हुए ,फिर आचमन करके पवित्र हो पूर्व दिशा में बैठकर भोजन करना चाहिए।
नित्यप्रति गुरुदेव के चरणकमलों में प्रणाम करना उनकी सेवा करना तथा उनकी आज्ञा का पालन करना ब्रह्मचारी का उत्तम धर्म है। एक ब्रह्मचारी को तत्परता के साथ विद्या अध्ययन में लगना चाहिए ,अध्ययन काल में एक ब्रह्मचारी के लिए विद्या के अलावा सारी वस्तुएं धूलि के समान होनी चाहिए तभी वह वास्तविक रूप से विद्या के सार तत्व को ग्रहण करने का सामर्थ्य प्राप्त कर पाएगा। जो बालक बाल्यावस्था में विद्या नहीं पढ़ता तथा किसी बुरी क्रिया द्वारा वीर्य नष्ट कर देता है उसे सदा के लिए पश्चाताप करना पड़ता है शिक्षा ग्रहण करना विद्या का अभ्यास करना ब्रह्मचर्य का पालन करना यह तीनों उसके लिए इस लोक और परलोक में बहुत ही लाभदायक हैं।
ब्रह्मचर्य के बिना आयु, बल,बुद्धि,तेज, कीर्ति और यश का विनाश होता है और मरने के बाद भी दुर्गति होती है ।इसलिए बालक को ब्रह्मचर्य की रक्षा हेतु सदैव विशेष यत्न करना चाहिए ।
विद्या का अर्थ है नाना प्रकार की भाषाओं और लिपियों का ज्ञान तथा शिक्षा का अर्थ है उत्तम गुण और उत्तम आचरणओं को सीखकर उनको अपने जीवन में लाना एवं ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का अर्थ है सब प्रकार के मैथुनों का त्याग करना और ब्रह्म के स्वरूप में विचरण करना अर्थात परमात्मा के स्वरूप का मनन करना ।
शहद, मांस, सुगंधित वस्तु,फूलों का हार, रस,स्त्री और अनेक जो मादक वस्तुएं हैं उनका सेवन तथा प्राणियों की हिंसा करना एवं शरीर की साज-सज्जा करना, आंखों में अंजन लगाना तथा काम,क्रोध और लोभ का आचरण करना ,जुआ खेलना ,गाली-गलौज और निंदा आदि करना एवं झूठ बोलना और स्त्रियों को देखना आलिंगन करना तथा दूसरे का तिरस्कार करना इन सब का ब्रह्मचारी को त्याग कर देना चाहिए।
ब्रह्मचर्य के पालन से मनुष्य में ब्रह्मांड को भेदने की शक्ति आ जाती है,इसी शक्ति के बल पर वह समाज को एक नई दिशा एवं दशा प्रदान करता है। इसलिए ऐसी अद्भुत शक्ति की रक्षा करना मनुष्य का सर्वप्रथम धर्म है यदि अपने इस धर्म का पालन मनुष्य निष्कपट भाव से करता है, तो वह जो चाहता है वह पा जाएगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। ब्रह्मचर्य धर्म का पालन जीवन का उत्थान है ,जीवन का कल्याण है।
--------------------जय श्री सीताराम----------------------
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