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Showing posts from January, 2020

हमारे तो एक प्रभु हैं...

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  बड़े भाग मानुष तन पावा। मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिलता है,भगवान की कृपा से मिलता है।इसलिए यह शरीर भगवान के लिए है।उनको प्राप्त करने के लिए है। वास्तव में एक मेरे प्रभु श्री सीताराम जी के अलावा और किसी की सत्ता है ही नहीं।आप विचार करके देखें,ये शरीर,ये संसार मिटनेवाला है,निरंतर मिट रहा है। जब हम मां के पेट से पैदा हुए थे,उस समय इस शरीर की क्या अवस्था थी और आज जब देखते हैं तो इसकी कैसी अवस्था है। ये संसार,ये शरीर पूर्व में जैसा था आज वैसा नहीं है और आज जैसा है,भविष्य में ऐसा नहीं रहेगा।यह निरंतर बदलने वाला है,बदल रहा है।लेकिन जो कभी नहीं बदलता सदा एकरूप बना रहता है वह केवल भगवद तत्व है,परमात्म तत्व है। हमारे प्रभु सीताराम जी निरंतर रहने वाले हैं और यह संसार  छूटनेवाला है। इसलिए हमें चाहिए कि हम दृढ़ता से यह मान लें कि प्रभु हमारे हैं और हम प्रभु के हैं।जैसे छोटा सा बालक कहता है कि मां मेरी है।कोई उससे पूछे कि बता मां तेरी क्यों है।तो इसका उत्तर उसके पास नहीं है।उसके मन में कोई शंका,कोई संदेह नहीं हैं। मां उसकी है, बस।फिर चाहे आप कुछ भी कहें, उसके लिए आपकी कोई बात महत्व ...

'धर्म' से ही मनुष्य का कल्याण है

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सुख की अभिलाषा सभी रखते हैं, परंतु वह सुख 'धर्म' के आचरण से ही प्राप्त होता है, अतः सभी लोगों को प्रयत्न पूर्वक धर्म का आचरण करना चाहिए।व्यक्ति को कभी भी धर्म की हानि नहीं करनी चाहिए अपितु सदैव धर्माचरण द्वारा धर्म का ही संचय करना चाहिए क्योंकि धर्म और अधर्म ही प्रत्येक व्यक्ति के सुखों एवं दुखों का कारण है अर्थात धर्म से ही मनुष्य सुख और दुख प्राप्त करता है।अब प्रश्न यह उठता है कि 'धर्म' है क्या?जिसका पालन हमें करना है।प्रिय पाठकों जिससे स्वयं का तथा दूसरों का कल्याण हो वही धर्म है 'परहित सरिस धरम नहिं भाई' दूसरों का हित करना ही 'धर्म' है।परहित के समान और दूसरा कोई धर्म नहीं है ,दूसरों का हित करने से आपका अन्तःकरण भी निर्मल होता है और आपमें दैवीय गुणों का प्रादुर्भाव होता है जिससे कि आपके उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता है। भगवान वेदव्यास कहते हैं ' आत्मनःप्रतिकूलानी परेसाम न समाचरेत' ।। जो व्यवहार हमारे स्वयं के अनुकूल न हो ,वह व्यवहार हमें दूसरों के साथ कदा भी नहीं करना चाहिए ,यही 'धर्म' है।प्रिय पाठकों संसार में ऐसा क...

आखिर पृथ्वी किसपर टिकी है?

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पृथ्वी मईया सबको धारण करती हैं किंतु उनको कौन धारण करता है? यह प्रश्न प्रायः सभी के मन में उठता ही है। आइए इस प्रश्न के उत्तर को हम जाने, शास्त्रों का कथन है कि पृथ्वी को गौ, ब्राह्मण, वेद, सती, सत्यवादी, निर्लोभी और दानशील-इन सात तत्वों ने धारण कर रखा है। गौ- गाय का आध्यात्मिक रूप तो पृथ्वी है ही,प्रत्यक्ष रूप में भी गाय ने पृथ्वी को धारण कर रखा है। समस्त मानव जाति को किसी न किसी प्रकार से गौ के द्वारा जीवन तथा पोषण प्राप्त होता है। प्राचीन काल में यज्ञों में घृत अर्थात घी की प्रधानता थी। अब भी देवता- पित्र आदि समस्त कार्य घृत से ही सुसंपन्न होते हैं। कोई भी पूजा हो हवन आदि अनुष्ठान हों , देवताओं का आवाहन करना हो तो उसमें देसी गाय का शुद्ध घृत ही मान्य है किन्तु दुर्भाग्यवश आज गोघृत के बदले नकली घी हमारे घरों में आ गया है। गाय दूध,दही, घी, गोबर और गोमूत्र देती है। उसके बछड़े बैल बनकर सब प्रकार के अन्न, कपास, सन, तिलहन आदि उत्पन्न करते हैं। दुःख की बात है कि हमारी जीवन स्वरूपा वह गौ आज गोरक्षक भारतवर्ष में प्रतिदिन हजारों की संख्या में कट रही है। ब्राह्मण- अनंत ...

'दोष' मन का नहीं हमारा है

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मन कभी एक अवस्था में नहीं रहता ,मुझे लगता है कि कूद-फांद करना इसकी सबसे प्रिय आदत है क्योंकि ये एक क्षण यहाँ होता है तो दूसरे ही क्षण कहीं और ,क्या ये मन की खासियत है या फिर उसकी कमज़ोरी जब इसपर विचार करते हैं तो लगता है कि शायद दोनों ही है खासियत भी और कमजोरी भी । मन जब अपने अनुसार कार्य करे तो वह सराहने योग्य है किंतु यदि अपने से विपरीत कार्य करे तो वही मन दुत्कारने योग्य है लेकिन यदि मन अपने विचारों के अनुकूल काम न करे तो क्या यह मन की गलती है क्योंकि जहाँ तक मुझे लगता है । मन की अपनी कोई समझ तो है नहीं जिससे कि उसको यह पता लग सके कि सही क्या है और गलत क्या है ,वह मन तो कभी किसी के लिए सही है तो कभी किसी के लिए गलत किन्तु कभी ऐसा नहीं होता कि मन किसी के लिए सही ही हो और किसी के लिए गलत ही अर्थात वह कभी एक सा रहता ही नहीं,यदि वह सदैव किसी एक ही भाव में स्थित होता तब तो हम उसपर गलत होने का आरोप मढ़ सकते थे किन्तु वह तो ऐसा है ही नहीं ,इसका सार तो यही निकल कर आता है कि गलती मन की है ही नहीं, तो गलती आखिर है किसकी ? आखिर मन में दुर्भाव उपजते हैं ,वासनाएँ उठती हैं तो दोष कि...

जगत के प्रपंच से कैसे छूटें

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इस अनित्य संसार में नित्य रूप से रहने वाले भगवान के अनेक भक्त हैं। 'नित्य' रूप इसलिए क्योंकि जगत में रहकर भी वे भगवान के भक्त जगतीय प्रपंच से सर्वथा अछूते हैं,इसलिए सुख -दुःख ,हानि -लाभ आदि द्वंदों में वे सम हैं।जो इस अनित्य संसार में रमण करते हैं ,वे इस संसार के दुखों से सदैव घिरे रहते हैं ,उन्हें जन्म-मरण का भय सदा ही ग्रसे रहता है ,अनेक प्रकार के दुखों से वे प्रभावित रहते हैं ,संसार में आसक्ति के कारण ऐसे लोग बहुत दुख उठाते हैं किंतु जो भगवान के भक्त हैं वे केवल अपने ईष्ट में ही रमण करते हैं ,उन्हें तो संसार की सुधि ही नहीं ,वे इस जगत को दुःखरूप जान कर कभी इसमें लिप्त नहीं होते ,संसार में रहकर भी, वे संसार के सुख-दुख रूपी द्वंदों से मुक्त रह कर ,संसार को उबारनेवाले होते हैं।अब आप के मन में यह प्रश्न उठता होगा कि यदि हमें संसार में रहना है और अपना जीवन यापन करना है तो संसार में तो आसक्त होना ही होगा ? प्रिय पाठकों आसक्ति से बड़ी हानि है आसक्ति के कारण बड़े दुख भोगने पड़ते हैं , इसलिए आप जगत में आसक्ति का त्याग करें , जब आप जगत के क्षणभंगुर सुखों का मन से त्याग कर देंग...

वैराग्य क्या है ? वैराग्य से परम शांति और आनंद कैसे

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यह संसार असार है अनित्य है सदा परिवर्तनशील है। इस संसार में आसक्ति दुख का कारण है और इस संसार से वैराग्य ही मुक्ति का कारक है। वैराग्य पूर्ण जीवन ही परम शांति और आनंद का जीवन है। विषयों में उलझा हुआ मनुष्य कभी भी शांति को प्राप्त नहीं हो सकता। अब प्रश्न यह उठता है कि वैराग्य क्या है? और वैराग्य का पालन कैसे किया जा सकता है क्या वैराग्य के बिना परम ध्येय तक पहुंचा नहीं जा सकता। तो इसका उत्तर बड़ा ही सरल है कि संसार में जितने भी भोग पदार्थ हैं उनमें जो सुख भोग बुद्धि है उस सुख भोग बुद्धि का अभाव ही संसार से वैराग्य है तथा शरीर को लेकर जो प्रेम है उस प्रेम का सर्वथा शून्य हो जाना शरीर से वैराग्य है। या शरीर एक हाड-मास का पुतला मात्र है जिसमें यदि ममत्व बुद्धि रखी जाए तो बड़ी ही हानि है यदि हानि से बचना है और लाभ को प्राप्त करना है।तो इस शरीर से ऊपर उठना होगा अर्थात इस शरीर को लेकर जो राग है उससे मुक्त होना होगा। जब तक हम अपनी बाहरी वेश-भूषा ,  बाहरी सजावट पर ध्यान देंगे तब तक हम कभी भी अपने भीतर के गुणों को नहीं सजा पाएंगे। भगवान भी कहते हैं कि "निर्मल मन जन सो मोहि...