
इस अनित्य संसार में नित्य रूप से रहने वाले भगवान के अनेक भक्त हैं। 'नित्य' रूप इसलिए क्योंकि जगत में रहकर भी वे भगवान के भक्त जगतीय प्रपंच से सर्वथा अछूते हैं,इसलिए सुख -दुःख ,हानि -लाभ आदि द्वंदों में वे सम हैं।जो इस अनित्य संसार में रमण करते हैं ,वे इस संसार के दुखों से सदैव घिरे रहते हैं ,उन्हें जन्म-मरण का भय सदा ही ग्रसे रहता है ,अनेक प्रकार के दुखों से वे प्रभावित रहते हैं ,संसार में आसक्ति के कारण ऐसे लोग बहुत दुख उठाते हैं किंतु जो भगवान के भक्त हैं वे केवल अपने ईष्ट में ही रमण करते हैं ,उन्हें तो संसार की सुधि ही नहीं ,वे इस जगत को दुःखरूप जान कर कभी इसमें लिप्त नहीं होते ,संसार में रहकर भी, वे संसार के सुख-दुख रूपी द्वंदों से मुक्त रह कर ,संसार को उबारनेवाले होते हैं।अब आप के मन में यह प्रश्न उठता होगा कि यदि हमें संसार में रहना है और अपना जीवन यापन करना है तो संसार में तो आसक्त होना ही होगा ? प्रिय पाठकों आसक्ति से बड़ी हानि है आसक्ति के कारण बड़े दुख भोगने पड़ते हैं , इसलिए आप जगत में आसक्ति का त्याग करें , जब आप जगत के क्षणभंगुर सुखों का मन से त्याग कर देंगे तब आप जगत में रहकर भी जगत की माया से छूट जायेंगे।भगवान श्री वासुदेव ने गीता में यही उपदेश किया है कि "कैसे व्यक्ति संसार में रहकर भी ,बिना संसार के भोगों में उलझे कर्म करता हुआ मुझे पा सकता है"।इसलिए प्रत्येक जन को भगवान के दिखाए उस 'कर्मयोग' मार्ग का अनुकरण करना चाहिए जिससे कि आसानी से वह जगत का आलंबन लेते हुए जगदीश्वर तक पहुँच जाए । भगवान कहते हैं कि 'व्यवहार में सब कुछ अपना मानों किन्तु हृदय से सब कुछ मुझे समर्पित कर के केवल एक मुझे ही मानों तो तुम संसार में रहकर भी संसार से मुक्त हो जाओगे। प्रिय पाठकों हमें इस जगत में बुद्धि पूर्वक रहना है और जगदीश्वर में हृदय पूर्वक ,यदि हम ऐसा करने में सफल होते हैं तो इस संसार के दुखों से हम मुक्त हो जाएंगे।अब आप के मन में यह प्रश्न उठता होगा कि हम ऐसा कैसे कर सकते हैं? प्रिय पाठकों इसका उत्तर बड़ा ही सरल है ,आप को अभ्यास करना होगा ,अभ्यास द्वारा ही आप प्रभु के समीप जा सकते हैं। इसके लिए आप को अपने जीवन की सारी क्रियाओं को भगवान से जोड़ना होगा ,जब आप भोजन करें तो मन में ऐसा भाव रखें कि भगवान मेरे भीतर में हैं और यह भोजन वे ही ग्रहण कर रहें हैं ,जिससे भी आप मिलें उससे पूर्ण आत्मीयता से मिलें क्योंकि भगवान संसार के कण-कण में हैं ,इसलिए आप जिससे भी मिलते हैं उससे मिलते समय मन में यही रखें कि मैं अपने प्रभु से ही मिल रहा हूँ।इस तरह अभ्यास करते-करते आपमें दैवीय गुणों का विकास होगा और आप संसार में केवल प्रेम एवं सद्भाव ही देखेंगे।
--------------जय श्री सीताराम-------------
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