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Showing posts from July, 2020

हमारे तो एक प्रभु हैं...

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  बड़े भाग मानुष तन पावा। मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिलता है,भगवान की कृपा से मिलता है।इसलिए यह शरीर भगवान के लिए है।उनको प्राप्त करने के लिए है। वास्तव में एक मेरे प्रभु श्री सीताराम जी के अलावा और किसी की सत्ता है ही नहीं।आप विचार करके देखें,ये शरीर,ये संसार मिटनेवाला है,निरंतर मिट रहा है। जब हम मां के पेट से पैदा हुए थे,उस समय इस शरीर की क्या अवस्था थी और आज जब देखते हैं तो इसकी कैसी अवस्था है। ये संसार,ये शरीर पूर्व में जैसा था आज वैसा नहीं है और आज जैसा है,भविष्य में ऐसा नहीं रहेगा।यह निरंतर बदलने वाला है,बदल रहा है।लेकिन जो कभी नहीं बदलता सदा एकरूप बना रहता है वह केवल भगवद तत्व है,परमात्म तत्व है। हमारे प्रभु सीताराम जी निरंतर रहने वाले हैं और यह संसार  छूटनेवाला है। इसलिए हमें चाहिए कि हम दृढ़ता से यह मान लें कि प्रभु हमारे हैं और हम प्रभु के हैं।जैसे छोटा सा बालक कहता है कि मां मेरी है।कोई उससे पूछे कि बता मां तेरी क्यों है।तो इसका उत्तर उसके पास नहीं है।उसके मन में कोई शंका,कोई संदेह नहीं हैं। मां उसकी है, बस।फिर चाहे आप कुछ भी कहें, उसके लिए आपकी कोई बात महत्व ...

सफलता कैसे मिले

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सफलता हर व्यक्ति चाहता है किंतु सफलता के पीछे जो त्याग और तपस्या होती है,उसे कोई नहीं चाहता ।बिरले ही ऐसे होते हैं,जिनके जीवन में त्याग और तपस्या का समन्वय देखने को मिलता है।और ऐसे लोग ही जीवन में सफल होते हैं।स्वप्न देखना अच्छी बात है लेकिन जागते हुए, सोते हुए नहीं।क्योंकि सोता हुआ व्यक्ति जो स्वप्न देखता है, वह मात्र भ्रम होता है,जो जागते ही टूट जाता है।स्वप्न में राजा रंक तो रंक राजा हो जाता है लेकिन स्वप्न टूटने के पश्चात सब कुछ सामान्य। जीवन में किसी लक्ष्य को पाना है,तो मात्र स्वप्न देखने से कुछ न होगा।उसके लिए कठोर परिश्रम करना होगा।और परिश्रम कोई करना नहीं चाहता।यही वो जगह है,जहाँ लोग मात खा जाते हैं।आज की सबसे बड़ी तकलीफ ये है कि लोगों के मन में धीरज नहीं है।हर चीज़ लोगों को जल्दी चाहिए,किसी चीज़ को पाने के लिए ,जिस धीरज की आवशकता होती है,उस धीरज की आज युवा पीढ़ी में कमी है।एक कहावत है कि 'धीरे -धीरे रे मना,धीरे सब कुछ होए।' इस कहावत हो सदैव दोहराने की आवशकता है। बड़े लक्ष्य को पाने के लिए ,बड़ा त्याग करना पड़ता है।काम ,क्रोध,द्वेष और आलस्य जैसे शत्रुओं ...

सब कुछ परमात्मा ही है

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संसार असार है।और इस असार संसार में सार रूप से परमात्मतत्व निहित है।संसार में जो कुछ भी है ,वह सब परमात्मा ही है।'मैं' भी परमात्मा हूँ और 'तुम'भी परमात्मा हो।संसार में दो प्रकार की प्रकृति होती है―  परा और अपरा प्रकृति।अग्नि,जल,वायु,आकाश,पृथ्वी,मन-बुद्धि और अहंकार―ये आठ अपरा(परिवर्तनशील) प्रकृति है तथा आत्मा परा(अपरिवर्तनशील)प्रकृति है।ये दोनों ही प्रकृतियाँ परमात्मा का स्वभाव होनेसे उनसे अभिन्न हैं।अर्थात इनकी अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है,ये दोनों ही प्रकृतियाँ परमात्मा के अधीन हैं।इसलिए संसार में जो कुछ भी है ,वह सब परमात्मा ही है।केवल परमात्मा ही सत्य है ,बाकी सब असत्य है क्योंकि इस संसार में केवल एक परमात्मा ही है जो आदि में भी था और अंत में भी रहेगा,और सिद्धांत यही है कि जो आदि और अंत दोनों में होता है,उसकी सत्ता वर्तमान में भी होती है।संसार कल भी नहीं था और आगे भी नहीं रहेगा ,इसलिए वर्तमान में भी वह नहीं है। असत्य संसार को सत्य मानने का कारण हमारी सुखभोगबुद्धि है।प्रत्येक जीव सोचता है कि संसार में उसे सुख की प्राप्ति होगी और उसी सुख को पाने के लिए...

चिंताओं से मुक्ति चिंतन से ही सम्भव है

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अनेक पीड़ाओं और अनेकानेक चिंताओं का नाम है,जीवन।और इन नाना प्रकार की चिंताओं में ही चिंतन के बीज निहित हैं। चिंतन और चिंता का मानव जीवन से बड़ा गहरा नाता है।चिंता से जहाँ मानव के जीवन का ह्रास होता है,वहीं चिंतन से उसके जीवन का परिष्कार होता है।चिन्ताएं सभी के जीवन में होती हैं, यह स्वाभाविक है किन्तु चिंतन हर किसी के जीवन में नहीं होता,यह विशिष्ट है।समाज का एक बहुसंख्यक तबका चिंताओं की चादर को चौबिसों घंटे ओढ़े हुए है,उन चिन्ताओं से मिली वेदनाओं को ही उसने जीवन मान लिया है।चिंताएं हैं और रहेंगी भी किन्तु उन्हीं चिंताओं में चिंतन का भी अंश है,बस अनुभव करने की देर है।यहाँ मुझे मानस की एक चौपाई याद आती है कि 'अस प्रभु ह्रदय अछत अबिकारी।सकल जीव जग दीन दुखारी।" अविकारी परमात्मतत्व जीव के भीतर विद्यमान है फिर भी वह दीन और दुःखी है, क्यों ?क्या कारण है उसके दुःख का उसकी अनेकानेक चिंताओं का।बहुत विचार करने पर पता चलता है कि जीव जो है उसने वो कभी माना ही नहीं ,उसने सदैव शरीर को ही सब कुछ माना और उसी की देख-रेख में अपना पूरा जीवन बिता दिया,इतना सब करने के पश्चात भी उसे ...