अनेक पीड़ाओं और अनेकानेक चिंताओं का नाम है,जीवन।और इन नाना प्रकार की चिंताओं में ही चिंतन के बीज निहित हैं। चिंतन और चिंता का मानव जीवन से बड़ा गहरा नाता है।चिंता से जहाँ मानव के जीवन का ह्रास होता है,वहीं चिंतन से उसके जीवन का परिष्कार होता है।चिन्ताएं सभी के जीवन में होती हैं, यह स्वाभाविक है किन्तु चिंतन हर किसी के जीवन में नहीं होता,यह विशिष्ट है।समाज का एक बहुसंख्यक तबका चिंताओं की चादर को चौबिसों घंटे ओढ़े हुए है,उन चिन्ताओं से मिली वेदनाओं को ही उसने जीवन मान लिया है।चिंताएं हैं और रहेंगी भी किन्तु उन्हीं चिंताओं में चिंतन का भी अंश है,बस अनुभव करने की देर है।यहाँ मुझे मानस की एक चौपाई याद आती है कि 'अस प्रभु ह्रदय अछत अबिकारी।सकल जीव जग दीन दुखारी।"
अविकारी परमात्मतत्व जीव के भीतर विद्यमान है फिर भी वह दीन और दुःखी है, क्यों ?क्या कारण है उसके दुःख का उसकी अनेकानेक चिंताओं का।बहुत विचार करने पर पता चलता है कि जीव जो है उसने वो कभी माना ही नहीं ,उसने सदैव शरीर को ही सब कुछ माना और उसी की देख-रेख में अपना पूरा जीवन बिता दिया,इतना सब करने के पश्चात भी उसे मिला क्या ,मृत्यु।उसके शरीर में नाना प्रकार की व्याधियाँ हो गयी,रोग ग्रस्त होकर उसने न जाने कितने दुःख सहे किन्तु जैसे ही उसे, उन दुःखों से छुटकारा मिला,उसने फिर वही किया।शरीर को ही सर्वस्व माना, उसके लिए नाना प्रकार के स्वांग रचे और जब अपने ही रचे उन स्वांगों में उलझने लगा ,उन चिंताओं के दलदलों में धंसने लगा ,तब बजाए चिंतन का दामन थामने के उसने जीवन को ही मुक्त कर दिया।
मनुष्य परिस्थितियों का दास है,जीवन में कब क्या होगा ये कोई नहीं जानता,इसलिए किसी के जीवन में घटी घटनाओं के प्रति हमें सहानुभूति व्यक्त करते हुए,उसके जीवन से सीख लेनी चाहिए बजाए उसपर दोषारोपन करने के।धन आदि ऐश्वर्य-वैभव जीवन को चिंताओं से मुक्त नहीं कर सकते और न ही किसी रूप में आप को सुख ही पहुँचा सकते हैं, चिंताओं से मुक्ति तो केवल चिंतन से ही संभव है।सुख-दुःख, गर्मी-सर्दी ,सम्पन्नता-विपन्नता ये सब मन की स्थितियाँ हैं, ये सब सत्य नहीं है ।भारत का ज्ञान और विज्ञान बहुत ऊँचा रहा है किंतु उसके प्रति भारतवासियों के मन में हीन भावना भर दी गयी।यही कारण रहा कि परमशान्ति का केंद्र भारत अशांति की गर्त में धंसता चला गया।जिसका परिणाम यह हुआ कि सालाना आठ लाख लोग जो पूरे विश्व में आत्महत्य करते हैं उनमें से डेढ़ लाख लोग भारत के होते हैं।
भारत में आदि काल से ही संयुक्त परिवार की परंपरा रही है।जहाँ पर समूचा परिवार प्रेमपूर्वक साथ रहता था।हंसना ,खेलना ,कूदना इन सारी क्रियाओं के लिए आप को किसी को खोजना नहीं पड़ता था।चाहे जैसी भी चिंताएं हों, उन चिंताओं का मुख चिंतन की ओर मोड़ दिए जाने की कला संयुक्त परिवार सिखाता था।सारी वेदनाओं को व्यक्त करने के लिए एक भरा-पूरा परिवार हुआ करता था ,जिस समय कोई चिंता से ग्रस्त होता ,वो स्वयं को परिवार के मध्य चिंता से मुक्त पता।किन्तु एकल परिवार और एकांकी जीवन की विचाधाराओं ने सब कुछ नष्ट कर दिया।विकास के नाम पर समाज के मूल में ,सम्बन्धों के मूल में धन को रख कर ।और इसका नतीजा ये हुआ कि धन का महत्व संबंधों से अधिक आंका जाने लगा और देखते ही देखते संयुक्त परिवार टूटते चले गए।
प्रिय पाठकों,जीवन सुख की राशि है,उसे व्यर्थ के चिंताओं में नष्ट न करें,चिंतन करें और आनंद का अनुभव करें। चिंताओं से मुक्ति चिंतन से ही सम्भव है।
-----------------जय सीताराम---------------
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