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Showing posts from July, 2021

हमारे तो एक प्रभु हैं...

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  बड़े भाग मानुष तन पावा। मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिलता है,भगवान की कृपा से मिलता है।इसलिए यह शरीर भगवान के लिए है।उनको प्राप्त करने के लिए है। वास्तव में एक मेरे प्रभु श्री सीताराम जी के अलावा और किसी की सत्ता है ही नहीं।आप विचार करके देखें,ये शरीर,ये संसार मिटनेवाला है,निरंतर मिट रहा है। जब हम मां के पेट से पैदा हुए थे,उस समय इस शरीर की क्या अवस्था थी और आज जब देखते हैं तो इसकी कैसी अवस्था है। ये संसार,ये शरीर पूर्व में जैसा था आज वैसा नहीं है और आज जैसा है,भविष्य में ऐसा नहीं रहेगा।यह निरंतर बदलने वाला है,बदल रहा है।लेकिन जो कभी नहीं बदलता सदा एकरूप बना रहता है वह केवल भगवद तत्व है,परमात्म तत्व है। हमारे प्रभु सीताराम जी निरंतर रहने वाले हैं और यह संसार  छूटनेवाला है। इसलिए हमें चाहिए कि हम दृढ़ता से यह मान लें कि प्रभु हमारे हैं और हम प्रभु के हैं।जैसे छोटा सा बालक कहता है कि मां मेरी है।कोई उससे पूछे कि बता मां तेरी क्यों है।तो इसका उत्तर उसके पास नहीं है।उसके मन में कोई शंका,कोई संदेह नहीं हैं। मां उसकी है, बस।फिर चाहे आप कुछ भी कहें, उसके लिए आपकी कोई बात महत्व ...

भारतीय शिक्षा

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  भारत एक धर्मप्राण राष्ट्र है,धर्म यहाँ के मूल में रचा-बसा है।जिस प्रकार बिना प्राण के शरीर की कल्पना व्यर्थ है।ठीक उसी प्रकार धर्मरहित भारत की कल्पना भी व्यर्थ है।भारत यदि इतने आक्रमणों के पश्चात भी बचा हुआ है,तो केवल और केवल उसके प्राणतत्व धर्म के कारण।अब प्रश्न यह उठता है कि धर्म क्या है? प्रिय पाठकों जिससे स्वयं का तथा दूसरों का कल्याण हो वही धर्म है ' परहित सरिस धरम नहिं भाई ' दूसरों का हित करना ही ' धर्म ' है। परहित के समान और दूसरा कोई धर्म नहीं है ,दूसरों का हित करने से आपका अन्तःकरण भी निर्मल होता है और आपमें दैवीय गुणों का प्रादुर्भाव होता है जिससे कि आपके उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता है। भगवान वेदव्यास कहते हैं  'आत्मनःप्रतिकूलानी परेषां न समाचरे त ।' जो व्यवहार हमारे स्वयं के अनुकूल न हो , वह व्यवहार हमें दूसरों के साथ कदा भी नहीं करना चाहिए ।यही ' धर्म ' है। प्रिय पाठकों संसार में ऐसा कोई भी मानव नहीं है,जो कि स्वयं का बुरा चाहता हो , प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए अच्छा ही चाहता है , वह स्वयं के लिए उत्थान...

कर्म योग

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  कर्म बंधन का कारक है,मुक्ति का नहीं।मुक्ति के लिए,यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने समस्त शुभाशुभ कर्मों का त्याग करे।तभी वह संसार सागर से मुक्त हो सकता है।श्रीमद्भागवत गीता द्वारा प्रतिपादित कर्म सिद्धांत अटल है,भगवान ने स्पष्ट शब्दों में कर्म के सिद्धांतों का बड़ा मार्मिक निरूपण किया है। यह सत्य बात है कि सृष्टि में कर्म की प्रधानता है "कर्म प्रधान बिस्व रचि राखा।"(मानस) स्वयं भगवान भी जब मनुष्य रूप में इस धराधाम पर अवतरित होते हैं, तो वे भी कर्म करते हैं और समस्त प्राणियों को कर्मरत होने की प्रेरणा देते हैं।किंतु क्या आपने कभी विचार किया कि भगवान ने किस प्रकार के कर्म में जीव को संलग्न होने का उपदेश किया है। कर्म दो प्रकार के होते हैं,'सकाम' और 'निष्काम'।जो कर्म किसी इच्छा के वशीभूत होकर संपादित किया जाता है,उसे सकाम कर्म कहते है।अर्थात ऐसा कर्म जो किसी इच्छा की पूर्ति के लिए किया जाए।इच्छा करना और उसके लिए कर्म करना कोई बुरी बात नहीं है।किंतु इच्छाएँ अनंत हैं, वे कभी समाप्त नहीं होती।एक इच्छा की पूर्ति के पश्चात मन में दूसरी इच्छा का जन्म होता ह...