कर्म योग
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कर्म बंधन का कारक है,मुक्ति का नहीं।मुक्ति के लिए,यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने समस्त शुभाशुभ कर्मों का त्याग करे।तभी वह संसार सागर से मुक्त हो सकता है।श्रीमद्भागवत गीता द्वारा प्रतिपादित कर्म सिद्धांत अटल है,भगवान ने स्पष्ट शब्दों में कर्म के सिद्धांतों का बड़ा मार्मिक निरूपण किया है।
यह सत्य बात है कि सृष्टि में कर्म की प्रधानता है"कर्म प्रधान बिस्व रचि राखा।"(मानस)स्वयं भगवान भी जब मनुष्य रूप में इस धराधाम पर अवतरित होते हैं, तो वे भी कर्म करते हैं और समस्त प्राणियों को कर्मरत होने की प्रेरणा देते हैं।किंतु क्या आपने कभी विचार किया कि भगवान ने किस प्रकार के कर्म में जीव को संलग्न होने का उपदेश किया है।
कर्म दो प्रकार के होते हैं,'सकाम' और 'निष्काम'।जो कर्म किसी इच्छा के वशीभूत होकर संपादित किया जाता है,उसे सकाम कर्म कहते है।अर्थात ऐसा कर्म जो किसी इच्छा की पूर्ति के लिए किया जाए।इच्छा करना और उसके लिए कर्म करना कोई बुरी बात नहीं है।किंतु इच्छाएँ अनंत हैं, वे कभी समाप्त नहीं होती।एक इच्छा की पूर्ति के पश्चात मन में दूसरी इच्छा का जन्म होता है।और आप पुनः उसको पूर्ण करने में लग जाते हैं।ये क्रम चलता रहता है,और जब आप की इच्छाएँ पूर्ण नहीं होतीं,तब आप को दुःख होता है।चिंताओं से आप का मन घिर जाता है,और अन्तोगत्वा आप अवसाद के शिकार हो जाते हैं।समस्त जीवन आप को निर्थक लगने लगता है।
सकाम कर्म करने वाला व्यक्ति सदैव इस अह्म भाव से ग्रस्त रहता है कि जो कुछ करता है ,वही करता है।किन्तु सत्य तो कुछ और ही है।"सबहिं नचावत रामु गोसाईं"(मानस) हम सबों को नचाने वाला तो वह नटनागर है।जो इस बात को समझ लेता है कि हम तो बन्दर हैं, जो उस ऊपर बैठे मदारी के नचाये नाच रहे हैं।वह 'निष्काम' कर्म योग में प्रवेश कर जाता है।
प्रिय पाठकों कर्म तो करना ही है क्योंकि "सकल पदारथ है जग माहीं।कर्म हीन नर पावत नहीं।"(मानस) किन्तु कर्म यदि निष्काम हो तो बात बन जाएगी।अपना सर्वस्व भगवान के श्री चरणों में अर्पित करते हुए,उनके द्वारा दिया गया कर्म जो करते हैं,वे बड़ी ही आसानी से इस संसार सागर से तर जाते हैं।जिसकी इच्छाएँ समाप्त हो गयीं हैं, जो परम संतोषी है,तथा जो केवल समाज और राष्ट्र के हित के लिए कर्म करता है, उसे कुछ इच्छा करने की आवश्यक्ता नहीं होती,उसे स्वतः ही सब प्राप्त हो जाता है।
-------------जय श्री सीताराम-------------
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