1 मानव जीवन के दस धर्म बताये गए हैं l उनमें क्षमा दूसरा धर्म है l समर्थ होते हुए भी अपना अनिष्ट - अहित करनेवाले के प्रति क्रोध न होना 'अक्रोध ' कहलाता है l पर इसमें मन में प्रतिशोध की भावना रह सकती है ; लेकिन क्षमा और सहिष्णुतामें प्रतिशोध की कल्पना तो रहती ही नहीं , अपराधी का उपकार किया जाता है अथवा उसे उल्टा महत्वा दिया जाता है l
मनुष्य स्वयं के अहंकारके वशीभूत होकर दूसरों की तनिक -सी भूल पर ही स्वयं की सहनशीलता को खो बैठता है ओर भयानक बदला लेने का संकल्प करने लगता है और इसी अमङ्गल - संकल्पके के साथ ही अनिष्टकी आशंका आरम्भ हो जाती है l इस वैर - भावना से विपक्षीका अमङ्गल तो उसके प्रारब्धमें होनेपर ही होता है , पर अपना अनिष्ट अवश्य होता है l हृदय रात- दिन द्वेषकी अग्नि में जला करता है , मन की सारी शांति समाप्त हो जाती है और येन - केन -प्रकारन अपना अनिष्ट करके भी विपक्षिका अमङ्गल कर डालने को मन व्यग्र हो उठता है l इस अमङ्गल भावना में ही बड़े - बड़े राष्ट्र और जातियाँ समाप्तप्राय हो जाती हैं , फिर एक मनुष्यकी तो बात ही क्या है l
इसके स्थानपर जब सहिष्णुता आ जाती है , तब क्रोध , वैर , द्वेष , प्रतिशोध , प्रतिहिंसा आदि दुर्गुणोंके सूखे रेगिस्तानमें भी स्नेहकी एक अमियधारा फुट पड़ती है l शांति का साम्राज्य छा जाता है और सर्वत्र सुख -ही- सुख आ पहुँचता है l
स्वयं भगवान श्री विष्णुका जगत के इतिहासमें क्षमा और सहिष्णुताके लिए बड़ा ही ऊँचा स्थान है l
एक छोटा सा आख्यान (वर्णन ) है l एक बार महर्षि भृगु शिवलोक , ब्रह्मलोक आदिसे घूमते - घूमते ओर बड़े -बड़े देवताओं के क्रोध का परीक्षण करते -करते विष्णुलोकमें पहुँचे l उस समय भगवान विष्णु माँ लक्ष्मीजिकी गोदमें मस्तक रखकर लेटे हुए थे lभृगुजीने पहुँचते ही उनके वक्ष: स्थलपर खूब जोरसे एक लात मार दी l लात लगते ही विष्णुभगवान उठकर बैठ गए और महर्षिके चरण अपने करकमलोंमें लेकर सहलाने लगे l सहलाते हुए बड़ी नम्रतासे बोले - ' नाथ ' ! वक्ष:स्थल तो बड़ा कठोर है और आप के चरण अत्यन्त सुकोमल हैं , कहीं चोट तो नहीं लग गयी ? आप मुझे क्षमा कर दें , आज से मैं सदा के लिए आप का चरणचिन्ह अपने वक्ष:स्थलपर आभूषणकी भाँति सुसज्जित रखूँगा l भगवानके वक्ष:स्थल पर नित्य विराजित चिन्हका नाम ही ' भृगुलता ' है l
महर्षि भृगु तो भगवान् विष्णु की क्षमाशीलता की परीक्षा करने आये थे , परन्तु भगवान् विष्णु का यह व्यवहार देखकर वे आशचर्यचकित हो गए और गदगद होकर भगवान् के श्री चरणों में लोट कर प्राथना करने लगे - 'नाथ ! आप चाहते तो मुझे कड़े -से-कड़ा दंड दे सकते थे l उसके स्थान पर आप ने कैसा विलक्षण व्यवहार किया l धन्य है आप प्रभु , धन्य है आप की यह महानता , यह क्षमा और सहिष्णुताका उच्च आदर्श l ' इसपर भगवान् विष्णुने उनके चरण पलोटकर उनके हृदय पर ही क्या , सम्पूर्ण विश्वके धरातल पर एक ऐसी अमिट छाप लगा दी , जो सहिष्णुताको सदा -सर्वदा बहुत ऊँचा स्थान देती रहेगी तथा संभावमें रहनेकी प्रेरणा प्रदान करती रहेगी l
---------------जय श्री सीताराम -------------------
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