हमारे तो एक प्रभु हैं...

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  बड़े भाग मानुष तन पावा। मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिलता है,भगवान की कृपा से मिलता है।इसलिए यह शरीर भगवान के लिए है।उनको प्राप्त करने के लिए है। वास्तव में एक मेरे प्रभु श्री सीताराम जी के अलावा और किसी की सत्ता है ही नहीं।आप विचार करके देखें,ये शरीर,ये संसार मिटनेवाला है,निरंतर मिट रहा है। जब हम मां के पेट से पैदा हुए थे,उस समय इस शरीर की क्या अवस्था थी और आज जब देखते हैं तो इसकी कैसी अवस्था है। ये संसार,ये शरीर पूर्व में जैसा था आज वैसा नहीं है और आज जैसा है,भविष्य में ऐसा नहीं रहेगा।यह निरंतर बदलने वाला है,बदल रहा है।लेकिन जो कभी नहीं बदलता सदा एकरूप बना रहता है वह केवल भगवद तत्व है,परमात्म तत्व है। हमारे प्रभु सीताराम जी निरंतर रहने वाले हैं और यह संसार  छूटनेवाला है। इसलिए हमें चाहिए कि हम दृढ़ता से यह मान लें कि प्रभु हमारे हैं और हम प्रभु के हैं।जैसे छोटा सा बालक कहता है कि मां मेरी है।कोई उससे पूछे कि बता मां तेरी क्यों है।तो इसका उत्तर उसके पास नहीं है।उसके मन में कोई शंका,कोई संदेह नहीं हैं। मां उसकी है, बस।फिर चाहे आप कुछ भी कहें, उसके लिए आपकी कोई बात महत्व ...

छोटे बालक को पाप नहीं लगता




      
   



              (1)     छोटे बालकों  से प्रायश्चित्त न कराया जाय



धर्मराज यमराज प्राश्चित्त के विषय में एक विशेष परामर्श देते हुए कहते हैं कि पाँच वर्ष से दस वर्ष की अवस्थावाले बालक से यदि कोई पाप कर्म बन गया हो तो यद्यपि वह सामान्य नियम से दण्ड का अधिकारी और प्रायश्चित्त करने के लिए बाध्य है , किन्तु विशेष नियम यह है कि ऐसे बालक से प्रायश्चित्त कर्म न कराया जाय , बल्कि उस पाप कर्म का प्रायश्चित्त उसका भाई , पिता अथवा अन्य कोई भी बन्धु - बान्धव कर दे तो इससे उस बालक की शुद्धि हो जाती है l  

              (2)    छोटे बालक को पाप नहीं लगता
    

अतो  बलातरस्यापि  नापराधो न पातकं  l
   राजदण्डो न तस्यास्ति  प्रायश्चित्तं न विद्यते   l l   (  यमस्मृति . 13 )


यदि पाँच वर्ष से कम अवस्था के बालक से कोई पाप कर्म हो जाय या कोई अपराध  हो जाय तो उसे वह पाप नहीं लगता और न वह दण्ड का अधिकारी ही होता है , क्योंकि इस अवस्था में प्रायः बालक अबोध रहता है , उसे पापा -  पुण्य , अच्छे - बुरे , अपने -  पराये का कोई बोध ही नहीं रहता , वह तो सहज भाव से क्रीड़ा करता है , उसके सभी कर्म क्रिडारूप होने से वह दोष का भागी नहीं बनता , इसलिए उसे न कोई राजदण्ड दिया जा सकता है और न उसके निमित्त कोई परिश्चित्त करने की ही आवश्यकता है l 
     
        
             (3)      आधे परिश्चित्त के अधिकरी 
     


अशीतिर्यस्य  वर्षाणि  बालो  वाप्यूनषोडशः l
       प्राश्चित्तार्धमर्हन्ति  स्त्रियो  रोगिण एव  च     l l   (  यमस्मृति. 17 ) 


जिसकी अवस्था 80 वर्ष या उससे अधिक हो गयी हो ऐसे वृद्ध , सोलह वर्ष से कम अवस्थावाले बालक , स्त्री तथा रोगी व्यक्ति की आधा प्रायश्चित करने से शुद्धि हो जाती है , इनके लिए पूरे प्रायश्चित का विधान नहीं बतलाया गया है l 

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