'वियोग' से कल्याण
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रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग।
जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृस तन राम वियोग।।
श्री रामचरितमानस के उत्तरकांड का यह प्रथम दोहा, हमारे अनेकानेक प्रश्नों का उत्तर अपने भीतर समाहित किये हुए है।जीवन में हर व्यक्ति कुछ पाने की इच्छा रखता है किंतु उस इच्छा को पूर्ण करने के लिए जो तत्परता चाहिए प्रायः हमें लोगों में उसका अभाव देखने को मिलता है।चाहे लक्ष्य लौकिक हो अथवा पारलौकिक उसको प्राप्त करने के लिए जीव में आतुरता तो होनी ही चाहिए।भक्ति पाने के लिए यह आवश्यक है कि भक्त के मन में भगवान के प्रति दृढ़ प्रेम और विश्वास हो क्योंकि बिना विश्वास प्रेम नहीं होता ,प्रेम के मूल में विश्वास का ही निवास होता है।
भगवान के पुनः अयोध्या लौटने की अवधि का मात्र एक दिन शेष रह जाता है,अतएव अयोध्यापुरी के समस्त नर-नारी भगवान के दर्शन हेतु आतुर हो रहे हैं।श्री सीतारामजी के वियोग में नगर वासियों का शरीर दुबला हो गया है,जहाँ-तहाँ लोग विचार कर रहें हैं कि आखिर क्या बात है कि प्रभु अभी तक आए नहीं।
जो मुख्य अर्थ हमारे लिए इस दोहे में निहित है,वह है -वियोग।नगर के सभी लोग श्री सीतारामजी के वियोग में अशांत हैं, वे बार-बार घर के द्वार पर निहारते हैं कि प्रभु आए की नहीं, उनका शरीर भगवान के वियोग में जर-जर हो गया है किन्तु उसकी कांति अपूर्व है।
प्रिय पाठकों,एक वियोग संसार के तुच्छ विषय-वासनाओं के लिए होता है और एक वियोग भगवान के लिए होता है।संसार और सांसारिकता के लिए वियोगाग्नि में जलने वाले जीवों का उत्तरोत्तर ह्रास होता है,लोक और परलोक में उनको घोर दुःख सहन करना पड़ता है।इसके विपरीत जो वियोग भगवान के प्रति होता है,उसमें जीव का कल्याण होता है।
तो बात चाहे परमात्मा की प्राप्ति की हो अथवा संसार के तुच्छ विषय भोगों की,जो आवश्यक बात है,वह यह कि उसको प्राप्त करने के लिए ,उसे पाने के लिए हृदय में अधीरता,आतुरता होनी ही चाहिए।ऐसी अधीरता ऐसा वियोग ही आप को लक्ष्य के निकट ले जाएगा ।
-------जय श्री सीताराम--------
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