भारतीय शिक्षा
- Get link
- X
- Other Apps
भारत एक धर्मप्राण राष्ट्र है,धर्म यहाँ के मूल में रचा-बसा है।जिस प्रकार बिना प्राण के शरीर की कल्पना व्यर्थ है।ठीक उसी प्रकार धर्मरहित भारत की कल्पना भी व्यर्थ है।भारत यदि इतने आक्रमणों के पश्चात भी बचा हुआ है,तो केवल और केवल उसके प्राणतत्व धर्म के कारण।अब प्रश्न यह उठता है कि धर्म क्या है?प्रिय पाठकों जिससे स्वयं का तथा दूसरों का कल्याण हो वही धर्म है 'परहित सरिस धरम नहिं भाई' दूसरों का हित करना ही 'धर्म' है।परहित के समान और दूसरा कोई धर्म नहीं है ,दूसरों का हित करने से आपका अन्तःकरण भी निर्मल होता है और आपमें दैवीय गुणों का प्रादुर्भाव होता है जिससे कि आपके उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता है।
भगवान वेदव्यास कहते हैं 'आत्मनःप्रतिकूलानी परेषां न समाचरेत।'जो व्यवहार हमारे स्वयं के अनुकूल न हो ,वह व्यवहार हमें दूसरों के साथ कदा भी नहीं करना चाहिए।यही 'धर्म' है।प्रिय पाठकों संसार में ऐसा कोई भी मानव नहीं है,जो कि स्वयं का बुरा चाहता हो ,प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए अच्छा ही चाहता है ,वह स्वयं के लिए उत्थान ही चाहता है न कि पतन।इसी तरह जब व्यक्ति स्वयं के लिए कल्याण चाहता है तो दूसरों के लिए भी उसे कल्याण ही सोचना चाहिए अर्थात स्वयं का और दूसरों का कल्याण ही धर्म है।हमारे शास्त्रों ने कहा है 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' यह सारा संसार सुखी रहे ,समस्त मानव जाति के कल्याण की घोषणा वही कर सकता है जिसके चरित्र में वह बातें चरितार्थ हों।भारत का पूरा इतिहास ही कल्याणमय इतिहास रहा है।इसलिए हम सभी को उस धर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिए।समस्त विश्व के कल्याण का भाव ही भारतीय धर्म है।जिसका प्रतिपादन भारत ने हर काल में किया है।डॉ. नगेंद्र अपने इतिहास ग्रंथ में कहते हैं कि 'भारतीय जीवन में समय-समय पर विदेशी विजातीय तत्वों के आते रहने के कारण परस्पर संघात होते रहे हैं।परंतु इन्हीं से होकर ऐसी जीवनीशक्ति का संचार भी होता रहा है कि हम डूबते-डूबते भी उबरते चले आये हैं, निष्प्रभ न होकर नवजीवन की अरुणिमा से महिमामंडित होते रहे हैं।इन सब के मूल में भारतीय मनीषियों की समन्वय साधना की वह प्रवृत्ति है,जो कि (ई.पूर्व.800 से ई.पूर्व.600 तक)उत्तर भारत में व्यक्त हो चुकी थी।'भारत की संस्कृति और सभ्यता को अनेको बार श्रीहत किया गया किन्तु फिर भी हमारे महापरुषों ने सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः का मूल मंत्र नहीं त्यागा।हिंदी साहित्य में जो भक्तिकाल है,जिसका समय आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार विक्रम संवत (१३७५-१७००) है,उसका अध्ययन करते समय हम पाते हैं कि कैसे संत और भक्त कवियों ने समाज को जोड़ने के लिए एक सामान्य भक्ति मार्ग की पद्धति का अन्वेषण किया और उसे सफलता पूर्व प्रचारित भी किया। गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने अपने महाकाव्य 'रामचरितमानस' में समन्वय का विराट स्वरूप प्रदर्शित किया है।डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि'भारतीय जनता में नाना प्रकार की परस्पर विरोधिनी शक्तियाँ, सदनाएँ,जातियॉं, आचार,विचार और पद्धतियाँ प्रचलित हैं।तुलसीदास स्वयं नाना प्रकार के सामाजिक स्तरों में रह चुके थे।उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।'लेकिन आधुनिक भारतीय शिक्षा तथा साहित्य में यह समन्वय भाव परिलक्षित नहीं होता।शिक्षा का अर्थ है ,कल्याण।और समस्त मनुष्य जाति का कल्याण केवल वैदिक शिक्षा द्वारा ही सम्भव है,जो प्रत्येक व्यक्ति के सुख की कामना करता है।"सर्वे भवन्तु सुखिनः"।वैदिक साहित्य मनुष्य के सर्वागीण उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।वैदिक ग्रंथों के अनुशीलन से पता चलता है कि ये ग्रंथ'असतो मा सद्गमय,तमसो मा ज्योतिर्गमय,मृत्योर्मामृतं गमय' के सिद्धान्त पर चलकर प्राणी को अमरता-प्राप्ति की प्रेरणा प्रदान करते हैं।महर्षि अरविंद शिक्षा के विषय में कहते हैं कि 'सच्चे शिक्षण का प्रथम सिद्धांत यह है कि कोई वस्तु सिखाई नहीं जा सकती।' इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति के भीतर ही ज्ञान का अक्षय भंडार है।जब उसका आन्तरात्मिक विकास होता है,तब उसे ऐसा प्रकाश मिलता है,जो अज्ञान के अन्धकार को दूर करता है।इसे ही वेदों में'तमसो मा ज्योतिर्गमय' कहा गया।परंतु आज मनुष्य शिक्षा को बड़े ही संकुचित अर्थों में ग्रहण करता है।वास्तव में तो यह समस्त संसार ही विद्यालय है।महर्षि कणाद और भगवान दत्तात्रेय चींटी तथा अन्य छोटे-छोटे जीव-जंतुओं को अनेक विशिष्ट गुणों के कारण अपना गुरु मानते थे।शिक्षा से शिक्षार्थी का बौद्धिक,सामाजिक ,सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक विकास होता है।किंतु यदि हम वर्तमान समय की बात करें तो पाएंगे कि एक ओर जहाँ ज्ञान-विज्ञान में अभूतपूर्व उन्नति हुई है,यातायात के विकसित साधनों के फलस्वरूप विभिन्न देशों की भौगोलिक दूरी नामशेष रह गयी है,प्रकृति की रहस्यमयी शक्तियों पर विजय प्राप्त कर मनुष्य धनकुबेर बनते जा रहा है वहीं दूसरी ओर मानव-मानव के बीच, राष्ट्रों के बीच आपसी वैमनस्य,संघर्ष,हिंसा-प्रतिहिंसा दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं।सुख-शांति के अनेकानेक साधनों के बीच भी मनुष्य नितांत अकेला है,असंख्य मनुष्य कष्ट,संत्रास और अशांति में जीवन व्यतीत कर रहे हैं।नये-नये वैज्ञानिक एवं तकनीकी अविष्कार व्यक्ति के सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में इतनी तीव्र गतिसे परिवर्तन लाते हैं कि वह आश्चर्यचकित रह जाता है।एल्विन टाफलर ने अपनी बहिचर्चित पुस्तक 'फ्यूचर शॉक'(future shock) में इस समस्या का गहराई से विश्लेषण किया है।वे कहते हैं'आज ऐसे शिक्षण की आवश्यकता है,जो व्यक्ति के अंदर समायोजन की शक्तियों का इतना विकास करदे कि तीव्र गति से होनेवाले परिवर्तन से उतपन्न मानसिक आघातों को सह सके।'जिस समायोजन की बात टाफलर साहब करते हैं, उस समायोजन की शक्ति का विकास भारतीय शिक्षा पद्धति द्वारा ही संभव है।
-------------जय श्री सीताराम------------
- Get link
- X
- Other Apps
Comments

This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत सुंदर और सारगर्भित लेख
ReplyDeleteबढ़िया
ReplyDelete