क्रोध आने पर क्या करें? सीखें रामजी से....
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दोस्तों, क्रोध आना तो स्वभाविक है क्योंकि यह हमारे अंतर में ही रहने वाला एक भाव है जो समय पाकर प्रकट हो जाता है।लेकिन समस्या इसके आने की नहीं है, समस्या तो इसके सही स्थान और सही समय के बजाए कहीं भी और कभी भी आजाने की है।दोस्तों, सही जगह और सही समय पर यदि क्रोध आए तो उससे बिगड़ते काम भी बन सकते हैं " जैसे बाली का वध करने के बाद रामजी ने सुग्रीव से कहा कि तुम जाओ सुग्रीव, और अंगद सहित राज्य करो लेकिन मेरे काम का सदा हृदय में ध्यान रखना, सीताजी की खोज में तुम्हें ही सहायता करनी है। परंतु समय आने पर सुग्रीव को विस्मरण हो गया,वे राज्य और स्त्री सुख में इस प्रकार डूबे कि रामजी के कार्य को ही भूल गए। तब रामजी को क्रोध आया और उन्होंने कहा -
जेहि सायक मारा मैं बाली ।
तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली।।
हे! लक्ष्मण जिस बाण से मैंने बाली को मारा था उसी बाण से कल में उस मूढ़ को मार दूंगा।
दोस्तों, अब आप विचार करिए, राम जी चाहते तो क्रोध में सुग्रीव को मार देते क्योंकि क्रोधी व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है।
किंतु रामजी, वे तो परम विवेकी हैं उन्होंने विवेक पूर्वक क्रोध पर अंकुश लगाया और लक्ष्मण जी से कहा कि हे! लक्ष्मण तुम जाओ और सुग्रीव को भय दिखला कर ले आओ, उसे मारने की आवश्कता नहीं है। इस प्रकार सही स्थान पर सही समय पर विवेक पूर्वक क्रोध पर अंकुश लगाते हुए रामजी ने बिगड़ते हुए काम को भी बना लिया।
लेकिन हमारे साथ प्रायः ऐसा होता नहीं है, क्योंकि हमारा क्रोध अनिश्चित है और इसलिए कभी भी और कहीं भी फूट पड़ता है।
अब प्रश्न ये उठता है कि ये क्रोध आने के पीछे का कारण क्या है? क्यों हमें क्रोध आता है?
दोस्तों हमारी आशा हमारी तृष्णा ही हमारे क्रोध का कारण है। राम जी को क्रोध आया क्योंकि रामजी ने सुग्रीव से आशा बांधी थी कि वह जानकी जी की खोज में उनकी सहायता करेगा किंतु सुग्रीव रामजी की उस आशा पर, जब खड़े नहीं उतर पाए तब राम जी को क्रोध आया। और उस क्रोध में उनके मन में सुग्रीव के हत्या का भाव जागृत हुआ लेकिन क्योंकि राम जी विवेकी पुरुष हैं उन्होंने विवेक के द्वारा क्रोध पर अंकुश लगाया।
दोस्तों क्रोध से केवल सामने वाले की ही हानि नहीं होती अपितु क्रोध करने वाले की भी उतनी ही हानि होती है।इसलिए
' आशा एक राम जी से सारी आशा छोड़ दे '
आशा करनी ही है तो रामजी से करिए क्योंकि सांसारिक लोगों से जो आशाएं की जाती हैं वे हमेशा टूट जाती हैं जिसके कारण हमें क्रोध आता है और हमारा हृदय उस क्रोध के कारण निरंतर जलता रहता है। आइए हम सब मिलकर व्यर्थ की आशाओं का त्याग करें और संकल्प करें कि हमें जब भी क्रोध आएगा हम रामजी की ही तरह अपने विवेक से उसपर अंकुश लगाएंगे.....
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