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Showing posts from July, 2018

हमारे तो एक प्रभु हैं...

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  बड़े भाग मानुष तन पावा। मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिलता है,भगवान की कृपा से मिलता है।इसलिए यह शरीर भगवान के लिए है।उनको प्राप्त करने के लिए है। वास्तव में एक मेरे प्रभु श्री सीताराम जी के अलावा और किसी की सत्ता है ही नहीं।आप विचार करके देखें,ये शरीर,ये संसार मिटनेवाला है,निरंतर मिट रहा है। जब हम मां के पेट से पैदा हुए थे,उस समय इस शरीर की क्या अवस्था थी और आज जब देखते हैं तो इसकी कैसी अवस्था है। ये संसार,ये शरीर पूर्व में जैसा था आज वैसा नहीं है और आज जैसा है,भविष्य में ऐसा नहीं रहेगा।यह निरंतर बदलने वाला है,बदल रहा है।लेकिन जो कभी नहीं बदलता सदा एकरूप बना रहता है वह केवल भगवद तत्व है,परमात्म तत्व है। हमारे प्रभु सीताराम जी निरंतर रहने वाले हैं और यह संसार  छूटनेवाला है। इसलिए हमें चाहिए कि हम दृढ़ता से यह मान लें कि प्रभु हमारे हैं और हम प्रभु के हैं।जैसे छोटा सा बालक कहता है कि मां मेरी है।कोई उससे पूछे कि बता मां तेरी क्यों है।तो इसका उत्तर उसके पास नहीं है।उसके मन में कोई शंका,कोई संदेह नहीं हैं। मां उसकी है, बस।फिर चाहे आप कुछ भी कहें, उसके लिए आपकी कोई बात महत्व ...

शान्ति कैसे मिले ?

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एक बार एक साधु बाबा नगर में भिक्षा  मांगने  गए ,भिक्षा मांगने  के बाद वे एक बगीचे  में जाकर  बैठ गए ,वह बगीचा राजा का था, तो सायंकाल के समय राजा वहाँ आए और साधु बाबा से पूछा की यहाँ  कैसे बैठे हो ? किसी धर्मशाला  या सराय ( मुसाफिरखाना , धर्मशाला ) में जाना चाहिए साधु बाबा ने कहा की यह सराय ही तो है l राजा ने कहा की यह तो मेरी कोठी  है , कोई सराय नहीं l साधु बाबा बोले की अच्छा आप की कोठी है l राजा बोले -हाँ मेरी ही कोठी है l साधु बाबा ने कहा की आप से पहले यहाँ कौन रहते  थे ? राजा ने कहा - मेरे पिताजी रहते थे l' उससे पहले  कौन रहते थे ? बोले की मेरे दादाजी  रहते थे l हम यहाँ  पीढ़ियों से रहते आये हैं l बाबा ने पूछा की क्या आप इसमें सदा रहोगे ? राजा बोले की जब तक हम जीवित  हैं , तब तक हम रहेंगे , फिर हमारे लड़के  रहेंगे l बाबा बोले तो फिर धर्मशाला या सराय किसे  कहते हैं ? एक आया एक गया यही धर्मशाला में होता है l अहंता (घमंड ,गर्व ) -ममता बढ़ा कर अशांति को  हमने स्वयं जन्म दिया है,...

जीवन नईया चली परमात्मा की ओर

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मथुरा  के कई  चौबे  लोगों ने  'मथुरा 'से प्रयागराज ( कुम्भ  ) जाने का विचार किया l   रेल ,साईकिल ,मोटर  , पैदल ऐसे विचार करके अंत  में नौका  पर जाने का विचार हुआ l यमुना  जी उधर बहती  हैं ,ऐसा विचार करके शाम  को भांग  घोट कर मस्ती  में रवाना  हुए l विश्राम घाट  से चले ,कई आदमी थे l सारी रात  नाव चलायी l प्रातः  कल हो गया l शहर  दिखाई दिया l पूछा -कौन सा  शहर है ? उत्तर मिला -मथुरा l फिर व्याकुल  होकर पूछा कौन सा घाट है ? उत्तर मिला -विश्राम घाट l सोचने  लगे की विश्राम घाट से तो चढ़े थे , क्या बात हुयी ? खोज करने पर पता चला की नौका का रस्सा  खोलना  भूल गए l अब आप ही विचार कीजिये की क्या रस्सा खोले  बिना हम नाव को चला सकतें हैं l रस्सा खोले बिना नाव कितनी ही चलावें , वहीं के वहीं रहोगे l ऐसे ही अपनापन संसार से रखोगे  तो कितनी ही नौका चलाओ , भगवान की ओर नहीं पहुँचोगे l परन्तु यदि रस्सा खोल  दिया अर्थात  यह स्वीकार  कर लिया ...

मन और माटी

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गरीबी से परेशांन  होकर एक व्यक्ति ने अपने परिवार को छोड़ कर जंगल  में जाने का फैसला किया l वहाँ उसकी भेंट एक साधु से हुयी , उसने अपनी कहानी साधु को सुनाई और उनसे  आग्रह करने लगा की वह उसे अपना शिष्य बना लें ,बहुत आग्रह करने पर साधु मान गए और उसे अपना शिष्य बनालिया l थोड़ी ही देर बाद साधु ने उससे कहा की जाओ पास की नदी से पानी लेकर आओ,मुझे बड़ी प्यास लगी है l पानी लेने के लिए जब वह व्यक्ति नदी पर पहुँचा  ,तो उसने  देखा  की जंगल के जानवर पानी में उधम मचा रहें हैं ,जिसके कारन पानी बहुत गन्दा होगया है l वह बिना पानी लिए ही साधु के पास पहुँचा ,उसने साधु को पानी न लाने का कारन बताया ,तो साधु ने उससे कहा की अभी रुक  जाओ थोड़ी देर बाद फिर से जाना और पानी ले आना l थोड़ी देर बाद वह फिर से पानी लेने जाता है ,तो उसे नदी का  पानी एकदम साफ दिखाई  पड़ता है l वह पानी लेकर आता है और साधु से कहता है l प्रभु आश्चर्य  की बात है ,अभी थोड़ी देर पहले तक पानी बहुत गन्दा था ,किन्तु अब एकदम साफ होगया है l साधु ने कहा.....पुत्र नदी...

चलो चलें भीतर की ओर

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हम क्यों भाग रहें हैं ? क्या इस प्रश्न का उत्तर है हमारे पास , हम बिना इस प्रश्न के उत्तर को खोजे , बस भागते चले जा रहें हैं l सत्य तो यह है की , हम भाग रहें हैं , कहीं रुकने  के लिए , जहाँ सुकून हो ,जहाँ शांति हो ,जहाँ  प्रेम हो ,जहाँ आनंद हो ,जहाँ सफलता  हो किन्तु इतना भागने  के बाद भी हम कुछ भी क्यों नहीं प्राप्त   करपा  रहें हैं , वो इसलिए की हम भाग तो रहें हैं  किन्तु बाहर की ओर , हमे भागना तो है ,किन्तु बाहर की ओर नहीं अन्दर की ओर l एक छोटा सा बालक सूर्य की रौशनी में खेल रहा था , उसे वहाँ अपनी परछाईं दिखाई पड़ी  वह उसे देख बड़ा खुश हुआ  , वह अपनी परछाईं के सीर पर हाथ रखने का प्रयत्न बार -बार करता किन्तु वह  जितना समीप जाने की कोशिश करता वह परछाईं उतनी ही दूर चली जाती , बहुत कोशिश करने के बाद भी उसके और परछाईं  के बिच का फासला उतना ही रहा जरा भी न घटा l अब वह बालक थक गया और रोने  लगा ,पास से एक भिक्षुक  गुज़र  रहा था ,उसने देखा की बालक बार -बार अपनी परछाईं के सिर पर हाथ रखने की को...

कल की छोडो

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कल क्या होगा इस प्रश्न को सोच  कर हमे अपना आज ख़राब  नहीं करना चाहिए l  यदि कोई ' व्यँग ' करदे  तो हम खूब हँसतें  हैं  , किन्तु यदि उसी 'व्यँग'को वह बार -बार करे तो क्या हम हँसते हैं  l जब हम एक ही ' व्यँग ' पर बार -बार नहीं हँसते ,तो फिर आखिर क्यूँ हम जीवन में बार -बार आनेवाली उन्ही  प्रतिकूल प्ररिस्थियों  पर निराश होतें है l निराशा छोड़ दो आशावादी बनो , हर क्षण में आंनद छुपा  हुआ है , हर हृदय में प्रेम बसा  हुआ है , खोजो... प्रेम खोजो , आनंद खोजो , नयी  संभावनाएं  खोजो , खोजोगे तब अवश्य मिलेगा  जरूर मिलेगा l हनुमान जी जब प्रभु श्री राम  और लक्ष्मण  जी से मिले  तो उन्होंने कहा , की प्रभु मेरी  पीठ  पर बैठ जाईये  में आप को सुग्रीव  के पास ले चलता  हूँ l यह सुन  लक्ष्मण  जी ने प्रभु से कहा की " प्रभु हनुमान जी तो बहुत शक्तिशाली हैं  ,वे हमे अपने पीठ पर उठाने  की बात कर रहें हैं "l तो प्रभु श्रीराम  ने हनुमान जी से कहा की 'हे ...

हमारा लक्ष्य हमे पुकार रहा है

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जीवन में बहुत सी ￰￰￰￰कठिनाईंयों का सामना  करने के बाद  मनुष्य अपने लक्ष्य तक पहुँचता है , लक्ष्य को प्राप्त करना इतना आसान नहीं , आज के समय में बड़ा तो हर कोई बनना चाहता  है ,किन्तु करना कुछ नहीं चाहता ,बस सोचता है की बैठे- बिठाये  सब मिल जाये l मित्रों  ' जिनके पँखो में जान होती है ,उन्ही की  ऊँची  उड़ान  होती है  ' कमज़ोर पँख वाले पक्षी उड़ते तो हैं , किन्तु कुछ दूर तक का ही सफर  तै कर पाते हैं l यदि हमे गेंद को हवा में खूब दूर तक उछालना हो तो हम क्या करेंगे ? प्रथम  हम अपने शरीर की  समस्त ऊर्जा को एक जगह , यानि  की अपने हाथों में एकत्रित  करेंगे और फिर एक ही बार में उस ऊर्जा के सहारे गेंद को जोर से ऊपर की ओर उछाल  देंगे l  तो क्यों न इसी सिद्धांत  का उपयोग हम अपने लक्ष्य तक पहुँचने में करें  l पहले तो हम अपना लक्ष्य निर्धारित करलें , और फिर उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हम भी पूरी ऊर्जा से ही काम करना शुरु करदें  l मार्ग में अनगिनत बाधाएँ  आएँगी ,...

आत्मा क्या है ?

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शरीर भिन्न -  भिन्न है , किन्तु आत्मा  एक है , आत्मा का कोई लिंग  नहीं , न तो आत्मा स्त्री  है और न ही पुरुष l यदि सागर का पानी हज़ारों मटकों  में भर दिया जाये , तो क्या वह पानी जो उन  मटकों में है ,वह बदल जायेगा ,भले  ही हज़ारों मटके  अलग -  अलग आकार के हैं  , अलग -  अलग रूप के  हैं ,किन्तु पानी तो सब में सागर का ही है l इसलिए जो सागर के पानी का गुण है वही  समस्त मटकों में भरे  पानी का भी है l ठीक उसी प्रकार वह आत्मा जो समस्त जीवों के भीतर विराजमान है , वह भी परमात्मा की ही तरह शुद्ध  और शाश्वत है l इसलिए जगत के सभी जीव , चाहे वह मनुष्य हों  या पशु-पक्षी उनके भीतर परमात्मा ही हैं ,और उनका अहित करना,अहित  सोचना  परमात्मा को रूष्ट करना है l सूर्य कभी -कभी बादलों  से ढक जाता है तो हमे सब तरफ अँधेरा सा दिखाई  पड़ता है , इसका अर्थ यह तो नहीं की सूर्य  ने अपनी दिव्य रौशनी  खो दी , बादलों के कारन कुछ समय के लिए ऐसा होता है किन्तु फिर से सूर्य अपने...

समाज को नहीं स्वयं को है , आवश्यकता ?

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समाज को हमारी  और हमे समाज की आवश्यकता है    , क्यों की हम मनुष्य एक सामाजिक  प्राणी  है और बिना समाज के हम नहीं रह सकते  l अगर  देखा जाये तो बिना समाज के  कोई भी नहीं रह सकता , चाहे वह जानवर  हो या फिर पशु -पक्षी हर किसी का एक समाज है , जिसका गठन  स्वयं उन्ही  ने किया है l ईश्वर ने तो सभी को पर्याप्त साधन प्रदान किया है , अब कोई उस साधन का उपयोग कैसे करता है यह तो उसी के ऊपर है , विचार कीजिये ... परमात्मा  ने सब से पहले तो मनुष्य को देह प्रदान किया , उसके  बाद  उस देह के विकास के लिए पर्याप्त   चीज़ों की व्यवस्था   की , उसने हर किसी के लिए एक गंतव्य निर्धारित कर दिया , उस गंतव्य तक पहुंचने  के लिए उसने उचित  मार्ग भी उन्हें दिखा दिया , मनुष्य का कार्य सिर्फ उस मार्ग पर चल  कर निर्धारित गंतव्य तक पहुंचना था ,पर वह भी उससे  नहीं हो पाया , अब आप ही बताईये  क्या इसमें परमात्मा का दोष है l ठीक उसकी प्रकार जिस समाज को हम कोसते है , वह समाज और कुछ नहीं...

' ज्ञान ' क्या है ?

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ज्ञान रूपी दीपक जलाने से ही अज्ञानता  रूपी अंधकार  मिट  सकता  है l ज्ञान से ही हम अपने जीवन को सार्थक  बना सकते हैं l इसलिए  हमे सदैव ज्ञान के लिए तत्पर  रहना चाहिए l आज हम सब को ज्ञान  तो बहुत है किन्तु फिर भी यदि हम देखें  तो सभी ज्ञानी  होते हुए भी अज्ञानी  ही प्रतीत  होते हैं  , ज्ञान है किन्तु क्रोध भी है , ज्ञान है किन्तु काम भी है , ज्ञान है किन्तु असहिष्णुता  भी है l आप ही सोचिये यह कैसा ज्ञान है , हम तो काम , क्रोध , लोभ , द्वेष इन सभी विकारों से घिरें हुए है , फिर भी हम सोचतें हैं की हम बहुत ज्ञानी हैं , ज्ञान वह दीपक है जिसके प्रकाशमान होते ही काम , क्रोध आदि सभी विकारों का नाश होजाता है l मन निर्मल और पावन हो जाता है और कुछ होता है तो बस आनंद परमानंद l इसे एक छोटी सी कथा के माध्यम से समझने का प्रयत्न करतें हैं l  एक अँधा व्यक्ति घर के भीतर से बाहर निकलने का प्रयत्न बार -बार करता किन्तु वह निकल न पाता ,कभी इस दिवार जा टकराता तो कभी उस दिवार, उसे बहुत क्रोध भी आता किन्तु...

सहिष्णुता - एक आदर्श धर्म ( भगवान् विष्णु एवं महर्षि भृगु )

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1 मानव जीवन के दस  धर्म बताये गए  हैं l उनमें क्षमा दूसरा धर्म है l समर्थ  होते  हुए  भी अपना अनिष्ट  -  अहित  करनेवाले  के प्रति  क्रोध न होना 'अक्रोध '   कहलाता  है l पर  इसमें  मन में प्रतिशोध  की भावना  रह सकती  है ;  लेकिन  क्षमा और सहिष्णुतामें प्रतिशोध की कल्पना  तो रहती  ही नहीं , अपराधी  का उपकार  किया जाता  है अथवा  उसे  उल्टा  महत्वा  दिया  जाता है l मनुष्य स्वयं  के अहंकारके वशीभूत  होकर दूसरों की तनिक -सी भूल पर ही स्वयं की सहनशीलता  को खो  बैठता  है ओर भयानक  बदला  लेने  का संकल्प  करने लगता  है और इसी अमङ्गल -  संकल्पके के  साथ ही अनिष्टकी आशंका  आरम्भ  हो जाती है l इस  वैर -  भावना से विपक्षीका अमङ्गल तो उसके  प्रारब्धमें होनेपर  ही होता है , पर अपना अनिष्ट अवश्य  होता है l हृदय  रात-  दिन द...

बाईं करवट लेटें क्यों ?

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शतपावली  के सामान  ही भोजन के बाद  बाईं करवट  लेटना  भी आवश्यक  है l इसे  वामकुक्षी भी कहते हैं l इसका अनन्य  लाभ  मिलता  है l इस सम्बन्ध  में शास्त्र कहता  है की भोजन करने के बाद बाईं तरफ   मुंह करके  कुछ देर तक  लेटे रहें  l इसके  पीछे  तीन  कारण हैं -  पहला  , अन्न  का कुछ देर जठर  में ही रहना  शरीर के लिए पथ्यकारक होता है l जठर के आकुंचन  -  प्रसारण  के कारण अन्न तरल  होकर  अगले  मार्ग  में प्रविष्ट  होता है l इससे  पाचन  अच्छी तरह  होता है l दूसरा  कारण है -  जठर के अगले हिस्से  में पूरा  अन्न जाने पर उसकी बाईं  ओर स्थित  आकुंचन -  प्रसारण वाली  जगह  पर अन्न का दबाव पड़ता  है l  दाईं ओर सोने  से यह दबाव नहीं आता l तीसरा  कारण है -  बाईं नासिका से सूर्य  नाड़ी 'पिंगला '  एवं दाईं नासिका से चंद्र  नाड़ी 'इड़ा ' बह...

धर्मशास्त्रोंसे ही शान्तिका संदेश मिल सकता है

 (1) धर्म के बिना मानव पशुके समान माना गया है l धर्मशास्त्रानुसार जीवन यापन करने वाला ही 'मानव' कहलाने का अधिकारी  है l हमारे  धर्म शास्त्रोंमें  मानव को पग - पगपर सत-मार्ग पर चलने की  प्रेरणा दी  गयी है l धर्मशास्त्रों  में वर्णित  परम्पराओं का  उल्लंघन  करने के कारन  ही आज मानव दानव बनता  जा रहा है l धर्मशास्त्रों की अवहेलना  कर मन   माने ढंग  के खान  - पान तथा आहार-विहार  के कारण  ही पूरा  संसार अशान्ति से  त्रस्त है l धर्मशास्त्रोंद्वारा बताये सात्विकताके मागपर  चलनेमें ही कल्याण  है l       आज देश  का यह महान   दुर्भाग्य  है की हमारे धर्मप्राण  भारत  में राजसी और तामसी  वृत्ति बढ़ती जा रही  है तथा सतोगुण क्षीण होता जा रहा है l दूसरे  देशोंमें  एक रष्ट्राध्यक्षका सिर काटक दूसरा राष्ट्राध्यक्ष  बनता है , अभी  भारत में ऐसा नहीं है हमारे धर्म प्राण देश में सतोगुण बढ़ना...

शरीर आनंद का घर

        यह आनंद रूपी गठरी आप के पास  ही है ,संसार में इस गठरी को खोजेंगे  तो यह  आप को कहीं नहीं मिलेगी  l विचार  कीजिये मित्रों  यह आनंद रूपी गठरी आप का स्वयं  का शरीर ही है ,जिसके माध्यम  से आप संसार के समस्त  सुख का  भोग करते  हैं ,यदि यह शरीर ही न   हो तो जगत  के सारे पदार्थ  व्यर्थ  होंगे आप किसी का भोग  नहीं कर  पाएंगे  l चाहे  वह  सुख हो या  दुःख हो भोगना  इसी  शरीर को ही है l इसलिए  आनंद की खोज मुर्ख  करते हैं , खोज उस वास्तु कि, की जाती  है जो की आप के पास न हो और जो आप के पास है यदि आप उसको  खोजते  हैं तो वह मूर्खता  ही है और कुछ नहीं l इसलिए विचार कीजिये और कालांतर  में हुयी गलतियों  को सोचने  के बजाये  सम्भावनावों की तलाश  कीजिये l अच्छे  विचार ,परहित  ,संतोष  ,धैर्य  , सेवा  यह सब परमान्द  के साधन  हैं ,मित्रों इन साधनो...